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________________ २९४ · धर्मशास्त्र का इतिहास बेबिलोन एवं भारत के आपसी सम्बन्ध के विषय में दो शब्द लिखना अनिवार्य है। ए० एच० सईस का कथन है कि ई० पू० तीसरी शती में बेबिलोन एवं भारत में सांस्कृतिक एवं सम्भवतः सामाजिक सम्बन्ध स्थापित थऔर यह सम्बन्ध स्थल-मार्ग से ही था, क्योंकि अभी तक जल-मार्ग से सम्बन्ध-स्थापन के विषय में कोई प्रमाण नहीं मिल पाया है। जेनेसिसों एवं राजाओं के हिब्रू इतिहास-कथाओं में आये हुए तमिल शब्दों से सिद्ध होता है कि फिलस्तीन में मोर, चावल, भारतीय चन्दन आदि का प्रयोग होता था। लगभग ई० पू० १४०० के बोगोजकेई शिलालेख में हिट्टियों के राजा एवं मितन्नी के राजा के मध्य हुई सन्धियों से प्रकट होता है कि मितन्नी के वंश के लोगों के देव-दल में वैदिक देव भी सम्मिलित थे, यथा इन्द्र, वरुण, मित्र एवं नासत्य। इतना ही नहीं, बोगोजकेई के ग्रन्थरक्षागारों वाले चार पत्रकों के आलेखनों से स्पष्ट हो गया है कि मितन्नी देश के किसी किक्कुली नामक व्यक्ति ने अश्वों के शिक्षण पर जो ग्रन्थ लिखा है उसमें बहुत-से ऐसे पारिभाषिक शब्द हैं जो संस्कृत शब्दों से मिलते हैं और मितन्नी, नजी एवं सीरिया के राजाओं एवं सामन्तों के नाम भारोपीय मूल के ही हैं। बावेरु-जातक ने बेबिलोन एवं भारत के पारस्परिक व्यापार का उल्लेख किया है। यूनानी राजदूत, यथा मेगस्थनीज़ (जिसे सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के पास भेजा था), देईमेकस (जो चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार के राजत्वकाल में आया था), भारत में भेजे गये थे और यह कहना ठीक ही है कि भारत से भी सेलसिउ एवं टालेमिक थे और इस प्रकार का आदान-प्रदान अशोक द्वारा भेजे गये धर्मदतों से बहुत पहले से ही प्रचलित था। अशोक ने पांच राजाओं के पास बौद्ध धर्मदूत भेजे थे, जिनके नाम ये हैं-अन्तियोग (सीरिया के ऐण्टिओकस), तुरमय (मिस्र के टाल्मी द्वितीय), अन्तिकिन (मैसीडोनिया के एण्टिगोनस), मगा (सीरिन के मगस) एवं (इपिरस के) अलिकसुन्दर। मैथ्यू के गॉस्पेल (१११-२) में आया है कि बेथलहेम में जब ईसा का जन्म हुआ तो पूर्व से विज्ञ लोग जेरूसलेम में यह कहते हुए आये कि उन्होंने पूर्व में नवजात शिशु के रूप में प्रकट होते हुए नक्षत्र को देखा है और वे उसकी पूजा करने को आये हैं। फिलोस्ट्रेटस द्वारा लिखित टायना के अपोल्लोनियस के जीवनवृत्त (तीसरी शती के प्रथम चरण) में आया है कि भारत में बेबिलोनियों का आदर-सत्कार होता था और भारतीय राजा इआर्चस ने अपोल्लोनियस को सात अंगूठियाँ दी थीं जिनके नाम सात ग्रहों पर आधारित थे और जिन्हें उसे सप्ताह के दिनों में पहनना था। यहां पर यही सिद्धान्त प्रतिपादित करने का प्रयत्न हो रहा है कि भारतीयों ने बेबिलोन में स्मारक-चिह्नों एवं सीमा-पत्थरों पर अंकित राशि-आकृतियों को देखकर, लगभग ई० पू० चौथी एवं तीसरी शती में, वहाँ के ज्ञान को अपने यहाँ प्राचीन काल से प्रचलित नक्षत्र-ज्योतिष में यथास्थान मिलाया और राशि-ज्योतिष का विकास अपने ढंग से किया। वराहमिहिर ने द्रेष्काणों की चर्चा करते हुए स्पष्ट लिखा है कि वे यवनों के मतों का दिग्दर्शन करा रहे हैं। यदि सम्पूर्ण भारतीय ज्योतिष यवनों से लिया गया होता तो वराहमिहिर उसे स्पष्ट कहते और उनके मतों का विवरण क्यों उपस्थित करते? म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते कि पुनर्देवविद् द्विजः ॥ (बृहत्संहिता २।१५) वराहमिहिर के इस कथन से स्पष्ट है कि यवन ज्योतिष-परम्परा एवं भारतीय ज्योतिष-परम्परा एक ही नहीं थी और यवनों ने ज्योतिष पर संस्कृत में ग्रन्थ लिखे थे। बराह ने स्पष्ट रूप से कई बातों पर यवनों से विरोध प्रकट किया है।" ई० पू० २०० के आसपास वासन्तिक विषुव (दिन-रात्रि का सममान) मेष राशि की २६. वराह एवं यवनों के अन्तविभेदों में कुछ निम्न हैं : (१) यवनों के मतों के अनुसार सभी ग्रह होरा Jain Education International n Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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