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________________ नक्षत्र-राशियों के वैविक और बेबिलोनी उल्लेख २९३ सके'; 'ऋत के चक्र में बारह तीलियाँ हैं और वह बार-बार व्योम में चक्कर काटता है किन्तु थकता नहीं। २५ उपर्युक्त बेबिलोनी सीमा-पत्थर एवं स्मारक-चिह्न यह सिद्ध करने को पर्याप्त हैं कि बेबिलोनिया में ई० पू० १००० के पूर्व ज्योतिष्चक्र की ४ या ५ राशियाँ प्रचलित हो चुकी थीं, किन्तु राशियों की आकृतियों की पूरी सूची बेबिलोनिया (या बेबिलोन) में लगभग ई०पू० छठी शती में प्रचलित हो सकी। सार्टन ने बड़ी सावधानी के साथ यह सम्भावना व्यक्त की है कि ईरान, भारत एवं चीन में बेबिलोनी प्रभाव पड़ा, किन्तु उन्होंने आगे इस विषय को सन्दिग्ध ही रख छोड़ा (देखिए हिस्ट्री आव साइंस,पृ.७८)। विद्वानों ने यह बात सब से प्राचीन कुण्डलियाँ मेसोपोटेमिया में ही पायी जाती हैं, न कि यूनान या मिस्र में। सार्टन का ४५३) कि 'होरोस्कोपोस' शब्द बहुत बाद में यूनान में बना, इसका प्रयोग मंनिलियस ने प्रथम शती में तथा क्लीमेंट (अलेक्जेंड्रिया के निवासी) ने (१५०-२२० ई०) तीसरी शती के पूर्वाध में किया। इस शब्द का प्रयोग इस काल के पूर्व नहीं जा सकता। अत्यन्त प्राचीन यूनानी कुण्डली मिस्र से ई० पू० ४ में आयी और प्रो० नेयुगेबावर (ई० एस्. ए०,१० ८५, जे० ओ० एस०, जिल्द ६३, पृ० ११५-१२४) का कथन है कि उन्हें ई० पू० ४ से ५०० ई० तक लगभग की ६० कुण्डलियाँ प्राप्त हुई हैं। अत्यन्त प्राचीन डेमोटिक एवं यूनानी कुण्डलियाँ ईसा की प्रथम शती में लिखी गयीं। हमने ऊपर देख लिया है कि वैदिक काल में न केवल सामान्य ज्योतिष-विद्या (फलित ज्योतिष) का विकास हो चुका था, प्रत्युत नक्षत्रों पर आधारित व्यक्ति-सम्बन्धी ज्योतिष अथर्ववेद के काल से ही पढ़ा जाने लगा था और भाव आदि नामों से मिलती हुई नाम-संख्याओं अथवा पारिभाषिक शब्दों का आरम्भ हो चुका था, जन्म के नक्षत्र पर आधारित भविष्य-वाणियां की जाने लगी थीं, इतना ही नहीं, जन्म के नक्षत्र से दूर स्थित नक्षत्रों पर आधारित ज्ञान भी प्राप्त किया जाने लगा था। यह बात पश्चात्कालीन ज्योतिष-विद्या के आरम्भिक स्वरूपों की ओर, जो माध्यमिक काल में अति विकसित हुए (यथा, व्यक्ति का भविष्य जन्म-काल पर ही निश्चित हो जाता है, उसकी नियति का पता कुण्डली से लग सकता है) संकेत करती है। यह ज्ञात है कि भारत का मेसोपोटेमिया एवं पास के देशों से सम्बन्ध अति प्राचीन काल से है। सिकन्दर के आक्रमण के उपरान्त ई० पू० चौथी शती में यह सम्बन्ध और दृढ हो गया। ऐसा कहा जा सकता है कि सिकन्दर के आक्रमण के उपरान्त भारत ने, जहाँ पर नक्षत्रज्योतिष विकसित हो चुका था, बेबिलोनी स्मारक-चिह्नों एवं सीमा-पत्थरों पर अंकित राशियों की आकृतियों को लेकर अपने अनुरूप बना लिया। बोधगया के सीमा-स्तम्भों पर बनी आकृतियों को देखकर यह बात हठात् मन में बैठ जाती है कि भारतीयों ने ई० पू० प्रथम शती में राशियों की आकृतियों की पहचान कर ली थी। स्तम्भों पर वृष से तुला, धनु एवं मकर की आकृतियाँ तक्षित हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि राशि-ज्ञान में भारतीयों ने यूनान से कुछ भी उधार नहीं लिया, जैसा कि वेबर आदि पाश्चात्य विद्वानों ने लिखा है। बोधगया में तक्षित आकृतियाँ बेबिलोनी आकृतियों से बहुत मिलती हैं। अभाग्यवश सभी स्तम्भ सुरक्षित नहीं रह सके हैं। देखिए इस विषय में बरुआ कृत 'गया एवं बुद्ध गया' (पृ. ९०-९२, १२, जिल्द २)। २५. उहं हि राजा वरुणश्चकार सूर्याय पन्थामन्तवा उ। ऋ० (१२२४१८), वाज० सं० (८।२३), तै० सं० (१॥४॥४५॥१); द्वावशारं नहि तज्जराय वर्वति चक्र परि धामृतस्य । ऋ० (१११६४।११), अथर्ववेद (९।९।१३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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