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धर्मशास्त्र का इतिहास १२।२, २०११०; बृ० यो० ११॥३४); सारस्वत (बृ० सं० ५३।९९); सिद्धसेन (बृ० जा० ७७); उशना (योगयात्रा ५।३); वज्र (बृ० सं० २१०२); वसिष्ठ (बृ० सं० ५१३८, योगयात्रा २१३, ८.६); विष्णुगुप्त (बृ० जा० ७७); यवन (बृ० जा० ७१, ८।९, ११११, २११३, २६:१९, २१; लघुजातक ९।६)।
उपर्युक्त लेखकों के ग्रन्थ कई शताब्दियों में बिखरे रहे होंगे, क्योंकि उनकी प्रसिद्धि एवं महत्ता के लिए समय अपेक्षित है। गर्ग से लेकर वराहमिहिर तक पाँच शताब्दियों का समय है। गर्ग का काल ई० पू० ५० है। गर्ग के काल से कम-से-कम दो शातियों उपरान्त टाल्मी का जन्म हुआ और फिमिकस उसके ४०० वर्षों के उपरान्त हुआ। गर्ग ने राशियों के विषय में लिखा है, अतः स्पष्ट है कि भारतीयों ने यूनानियों से राशि-ज्ञान नहीं प्राप्त किया। यूनानियों को सिकन्दर के आक्रमण के उपरान्त (ई० पू० चौथी शती) बेबिलोन से पुण्डली-सम्बन्धी ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त हुआ था।
‘जोडिअक' (Zodiac) नामक यूनानी शब्द के विषय में कुछ जानकारी आवश्यक है। 'ज्योतिष्चक्र' इसका संस्कृत रूपान्तर-सा लगता है। यह शब्द यूनानी शन्द 'जोडिअन' (Zodian) से निकला है जिसका अर्थ है 'छोटे पश' किन्तु इसका शाब्दिक अर्थ है 'पशओं का वृत्त' । हेरोडोटस (११७०) में यह 'अंकित या तक्षित आकृति' के अर्थ में आया है। यह उस समय व्योम-चक्र में कुछ नक्षत्र-दलों की कल्पित आव विषय में प्रयक्त होता था। 'जोडिअक' (राशिचक्र) व्योम की एक मेखला (वत्त) है जो लगभग १६ अंश चौड़ी है और रविमार्ग द्वारा दो भागों में विभक्त है, जिसमें सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रह घमते हैं। 'साइन्स आव दि जोडिअक' (Signs of the Zodiac) दो अर्थों में प्रयक्त हो सकता है, यथा (१) नक्षत्रों के १२ दल, जो रविमार्ग (एक्लेप्टिक, Ecleptic) की सन्निधि में बिखरे दीखते हैं और स्थिति-व्यतिक्रम, विस्तार-असाम्य एवं चमक का द्योतन करते हैं; तथा (२) व्योम-मेखला के समान निर्मित (माने हए) विभाग, जिनमें प्रत्येक ३० अंश (रेखांश) तक विस्तत है। सामान्यतः यह माना जाता है कि प्रथम अर्थ दूसरे से प्राचीन है। मेस्सनेर ने संकेत किया है कि बेबिलोन में ई० पू०६ठी शती में नेबुचड़ नेज्ज़ार के राज्यकाल में (ई० पू० ५६७) केवल नक्षत्रों के चित्र प्रकट किये जा सके थे और बारह नक्षत्र-दल ई० पू० ४१८ के लगभग दारा के राज्य-काल में बने। इन चित्रों का निर्माण किसने किया और इन्हें विभिन्न नाम किसने दिये, इसके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। सम्भवतः नाम विभिन्न कालों में दिये गये। मेइस्सनेर का कथन है कि ई० पू० १३वीं शती में नक्षत्र-चित्र बन गये थे और उस समय के सीमा-पत्थरों में भी वे पाये जाते हैं।
शियापरेली ने ऐस्ट्रानामी इन दि ओल्ड टेस्टामेण्ट' (पृ० ८५) में लिखा है कि बेबिलोन में खड़े पत्थर खेतों में सीमा-चिह्नों (बुदुस, बेबिलोनी भाषा) के रूप में रखे जाते थे या सामान्य लोगों की सूचना के लिए सम्पत्ति-अधिकार के सूचक के रूप में गाड़े जाते थे। इनमें अब तक ३० पत्थर पाये गये हैं, जिन पर आकृतियाँ खिची हुई हैं और इस अर्थ के शिलालेख हैं कि जो उन्हें हटायेगा उस पर भयानका अभिशाप पड़ेगे। पृ० ८६ पर शियापरेली ने ई० पू० १२ वीं शती के बेबिलोनी स्मारक-चिह्न का चित्र दिया है जिसमें चन्द्र, सूर्य एवं शुक्र केन्द्र स्थल में अंकित हैं और उनके चतुर्दिक बहुत-सी आकृतियाँ हैं, जिनमें वृश्चिक (बिच्छू), मेष (भेड़, जिसकी पूंछ मछली की है) एवं धनु बड़ी सरलता से पहचाने जा सकते हैं।
ऐसा तर्क किया जा सकता है कि ऋग्वेद की दो ऋचाएँ (१।२४।८ एवं १११६४।११) राशियों की मेखला का द्योतन करती हैं---'राजा वरुण ने एक चौड़ा मार्ग बनाया हैं जिससे सूर्य उसका अनुगमन कर
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