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________________ गोचर, कारक, दशा-अन्तर्दशा आदि २९१ १२वें में हों तो बध, जो शुभ है, उस समय के लिए अशुभ हो जाता है। एक शब्द कारक है, जिसकी व्याख्या आवश्यक है। यह जटिल प्रश्न है। बृ० जा० (२२।१) एवं सारावली (७/८ एवं ११) ने इस पर विचार किया है। जितने भी ग्रह अपने गृह या उच्च या मूलत्रिकोण में होते हैं और पहले, चौथे, सातवें एवं दसवें स्थान में होते हैं तो वे एक-दूसरे के कारक होते हैं, किन्तु वह ग्रह, जो कुण्डली के १० वें गृह में होता है, विशिष्ट रूप से कारक होता है। मान लीजिए, लग्न कर्क है और उसमें चन्द्र है (अर्थात् वह चन्द्र का स्वगृह है) और मंगल, शनि, सूर्य एवं बृहस्पति अपने उच्च (मकर, तुला, मेष एवं कर्कट) में हैं, तो वे एक-दूसरे के कारक होते हैं। इस विषय में बहुत-से नियम हैं (बृ० जा० २२, सारावली ६)। सारावली (७।७-१२) ने एक दूसरा अर्थ भी दिया है-प्रत्येक ग्रह विशिष्ट रूप से लोगों से सम्बन्धित होता है, उन पर शासन करता है या कतिपय बातें प्रकट करता है। कवियों, पुष्पों, भोज्यों, मणियों, चाँदी, शंख, लवण, जल, वस्त्रों, भूषणों, नारियों, घी, तिल, तैलों एवं निद्रा का स्वामी चन्द्र है। मांगलिक वस्तुओं, धर्म, ऐश्वर्य-कृत्यों, महत्ता, शिक्षा, नियोगों (आज्ञाओं), पुरों, राष्ट्रों, यानों, शयनों, आसनों, सोना, धान्यों, निवासों एवं पुत्रों का स्वामी बृहस्पति है। अब हम ग्रहों की दशा एवं अन्तर्वशा पर विचार करेंगे। विंशोत्तरी सिद्धान्त में मनुष्य की कल्पित अधिकतम आयु १२० वर्ष है तथा अष्टोत्तरी में वह १०८ वर्ष है। ये वर्ष ग्रहों में विभिन्न वर्ष-संख्याओं में विभाजित हैं और ऐसा कहा गया है कि दशाओं के विभिन्न विभाजन अन्तर्दशाएँ हैं। यह सिद्धान्त बृहज्जातक के आठवें अध्याय में वर्णित है और इसकी व्याख्या में उत्पल ने यवनेश्वर से बहुत पद्य उद्धृत किये हैं। अष्टकवर्ग का सिद्धान्त बृहज्जातक के नवें अध्याय में उल्लिखित है। कहा गया है कि सात ग्रह एवं लग्न आठ सत्ताएँ हैं और वे अपने पूर्ण या शुभ फल तभी उत्पन्न करती हैं जब कि वे मनुष्य के जीवन की विशिष्ट अवधियों एवं विशिष्ट घरों में हों। स्थान-संकोच से हम इसकी व्याख्या नहीं करेंगे। बृहत्संहिता, बृहज्जातक तया यात्रा वाले दो ग्रन्थों में वराहमिहिर ने अपने पूर्ववर्ती ज्योतिषाचार्यों का उल्लेख किया है। यहाँ संक्षेप में उनका उल्लेख होगा। निम्न सूची में सामान्य रूप से खगोल विद्या (ज्योतिःशास्त्र) के प्रन्थों के नाम नहीं आये हैं। अत्रि, जिन्होंने, ब० सं०४५।१ के अनसार उत्पातों पर लिखा है, वे गर्ग के शिष्य थे; बादरायण (वृ० सं० ३९।१) जिनसे उत्पल ने अपनी टीकाओं में बहुत से पद्य उद्धृत किये हैं, जिनमें एक ऐसा है (बृ० जा. ६।२) जिसमें शिशु की अकालमृत्यु पर यवनेन्द्र का मत वर्णित है; भागुरि (जिसे ब० सं०, ८५।१ ने शकुनों पर लिखने वाला प्राचीन लेखक माना है); भारद्वाज (बृ० सं० ८५।२ में वर्णित एक लेखक, जिसके ग्रन्थ पर उज्जयिनी के राजा द्रव्यवर्धन ने अपना शकुन-ग्रन्थ आधारित किया); भृगु (बृ० सं० ८५।४३); यवन (बृ. यो० २९।३); देवल (बृ० सं० ७।१५ एवं योगयात्रा ९।१२); देवस्वामी (बृ० जा० ७१७); अव्यवर्धन (उज्जयिनी का राजा एवं शकुनों पर लिखने वाला); गर्ग (बृ० सं० की टीका में उत्पल ने गर्ग के ३०० से अधिक पद्य उद्धृत किये हैं; बृ० सं० ३५।३ की व्याख्या में उत्पल ने गर्गलिखित मयूरचन्द्रिका ग्रन्थ का उल्लेख किया है, बृ० सं०१५ की व्याख्या में उसने वेदांगज्योतिष पर गर्ग के ३ पद्य उद्धृत किये हैं); वृद्धगर्ग (उत्पल, बृ० सं० ११११); गार्गी (उत्पल ने बृ० जा० की टीका में इसे उद्धृत किया है, इसका दूसरा नाम है भगवान्); गौतम (बृ. यो० २९।३); जीवशर्मा (बृ० जा० ७।९; उत्पल १३॥३); काश्यप (बृ० यो० १९।१); काश्यप (उत्पल, बृ० सं०४०।२); माण्डव्य (बृ० सं० १०३।३, उत्पल, बृ० जा० ६.६, १११३ एवं ५, १३३२ एवं १२।४); मणित्य (बृ० जा०७१, ११।९); मय (बृ० सं० २४।२, ५५।२९, ५६१८, बृ० जा०७१ आदि); नारद (बु० सं० १११५, २४।२); पराशर (बृ० सं०७८, १७१३, बृ० जा० ७१ आदि) पोलिश ; पितामह (बृ० सं० १४); रत्नावलि (बृहयोगयात्रा २।१); ऋषिपुत्र (व० सं० ४८१८५); सत्य (बृ० जा० ७।३, ९-११, १३, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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