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________________ प्रहों का मित्र-शत्रुत्व, बल, स्वभाव, दृष्टि आदि २८९ ३९-४०) जहाँ क्रम से यूनानी, लैटिन, फ्रेंच नामों और राशियों, ग्रहों आदि के यूनानी शब्दों के विकास पर प्रकाश डाला गया है। बृ० जा० (२।१५-१७), लघुजातक (२।१०-१२), सारावली (४।२८-३१), मुहूर्त-चिन्तामणि (६।२७२८) आदि ग्रन्थों में ग्रहों के मित्रभाव, वैरभाव एवं पारस्परिक भिन्नता तथा उदासीनता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मित्र एवं शत्रु दो प्रकार के होते हैं----स्वाभाविक एवं प्रासंगिक (तात्कालिक)। देखिए तालिका मित्र शत्र उदासीन (या सम) ० शुक्र, शनि कोई नहीं बुध मंगल, बृहस्पति, शुक्र, शनि शुक्र, शनि मंगल, बृहस्पति, शनि मंगल बुध चन्द्र, मंगल, बृहस्पति सूर्य, बुध सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति सूर्य, शुक्र सूर्य, चन्द्र, मंगल बुध, शनि बुध, शुक्र बुध बृहस्पति शनि चन्द्र बुध, शुक्र सूर्य, चन्द्र सूर्य, चन्द्र, मंगल शुक्र मंगल, बृहस्पति बृहस्पति शनि उपर्युक्त तालिका के परिदर्शन से पता चलेगा कि सम्बन्धों में परस्परता (बदले की भावना) नहीं है। उदाहरणार्थ, बुध का शत्रु चन्द्र है, किन्तु वही बुध को मित्र मानता है; चन्द्र का कोई शत्रु नहीं है, किन्तु शुक्र चन्द्र को शत्रु मानता है। यवनों के अनुसार कोई ग्रह सम (न मित्र न शत्रु) नहीं हैं, या तो वे मित्र हैं या शत्रु। प्रासंगिक मित्रता एवं शत्रुता के विषय में ये नियम हैं-जब ग्रह प्रत्येक से दूसरे, तीसरे, चौथे, दसवें, ग्यारहवें या बारहवें घर में होते हैं तो वे विवाह, आक्रमण या यात्रा आदि के अवसरों पर मित्र होते हैं, और नहीं तो वे उसी राशि में या ५३, ६ठे, ७, ८, ९वें घरों में (प्रत्येक से) शत्रु होते हैं। यहाँ भी विभिन्न मत हैं, जिन्हें हम छोड़ रहे हैं। ग्रहों का बल चार प्रकार का होता है-स्थान, दिशा, चेष्टा, काल के अनुसार। कोई ग्रह अपने स्थान में तभी बलवान् होता है जब कि वह अपने घर में हो, या उच्च हो या अपने मित्र के घर में हो या अपने त्रिकोण में हो या नवांश में हो। यही स्थानबल कहलाता है। बुध एवं बृहस्पति पूर्व में (अर्थात् जब वे लग्न में होते हैं) शक्तिमान् होते हैं ; सूर्य एवं मंगल दक्षिण में (जब वे १०वें घर में होते हैं); शनि पश्चिम में (सातवें घर में); चन्द्र एवं शुक्र उत्तर में (चौथे घर में) बलवान् होते हैं। इसे दिग्बल कहा जाता है। सूर्य एवं चन्द्र उत्तरायण में (अर्थात् मकर से आगे ६ राशियों में) और; शेष ग्रह तभी बलवान् होते हैं जब वे वक्र होते हैं या चन्द्र से संयुक्त होते हैं या जब युद्ध (सूर्य एवं चन्द्र को छोड़कर अन्य ग्रहों के साथ) होता है, इनमें उत्तर वाला अपेक्षाकृत अधिव बलवान् होता है। गर्ग (अद्भुतसागर में उद्धृत) का कथन है कि ग्रहयुद्ध तभी होता है जब कोई ग्रह किसी अन्य ग्रह को ढक लेता है, या जब यह थोड़ा ही ढकता है, या जब एक का प्रकाश दूसरे के प्रकाश को पृष्ठभूमि में कर देत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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