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धर्मशास्त्र का इतिहास है-पहले भाव से स्वास्थ्य एवं शरीर-वृद्धि; दूसरे से कुटुम्ब की सम्पत्ति; तीसरे से भाई (एवं बहिनें) एवं शौर्य; चौथे से सम्बन्धी, मित्र, सौख्य, घर-द्वार एवं माता; पाँचवें से पुत्र, बुद्धि, ज्ञान; छठे से शत्रु एवं व्रण; सातवें से पत्नी, प्रेम-कर्म, विवाह; आठवे से मृत्यु, दोष एवं पाप; नवें से धर्म, बड़े लोग (समान्य आदि), तप; दसवें से कर्म, मान, स्थिति एवं पिता; ग्यारहवें से अच्छे गुणों की प्राप्ति; बारहवें से व्यय, ऋण आदि।
थिबो (ग्रुण्ड्सि, पृ० ६८) ने जैकोबी का अनुसरण करके प्रतिपादित किया है कि बारह भावों वाला सिद्धान्त, जो वराहमिहिर द्वारा विकसित किया गया और भारतीय फलित ज्योतिष का एक प्रमुख अंग है, पाश्चात्य देशों में फिर्मीकस मैटर्नस (चौथी शती के मध्य में) के पूर्व नहीं पाया जाता, और यूनानी ज्योतिष का प्रवेश भारत में फिर्मीकस एवं वराहमिहिर के मध्य काल में ही हुआ। दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि ऐसी उक्ति 'अन्धे व्यक्ति द्वारा अन्धे व्यक्ति का अनुसरण' वाली कहावत चरितार्थ करती है। पहली बात यह है कि टाल्मी के टेट्राबिब्लोस (२१८,पृ० १९१, ३।१०,पृ० २७३-२७५) में भावों की धारणा का अभाव नहीं है, जहां पहले, सातवें, नवें, दसवें एवं ग्यारहवें भावों की ओर संकेत है, हाँ यह सत्य है कि टाल्मी ने भावों की पद्धति पर विशेष ध्यान नहीं दिया है। सम्भवतः यह बात जैको बी एवं थिबो को नहीं सूझी। दूसरी बात यह है कि भावों का सिद्धान्त सबसे पहले वराह में ही नहीं आया। स्वयं वराह ने अपने पूर्ववर्ती कतिपय भारतीय लेखकों की ओर संकेत किया है जिनके ग्रन्थों में यह पद्धति भली-भाँति विकसित हो चुकी थी। एसा विश्वास नहीं किया जा सकता कि इतना बड़ा विशाल साहित्य लगभग एक सौ वर्षों में ही प्रणीत हुआ और वह भी फिर्मीकस के उपरान्त । इसके अतिरिक्त गर्ग, पराशर जैसे लेखक, जो वेदांगज्योतिष एवं सिद्धान्तों के मध्यकाल में रखे गये हैं (ई० पू० लगभग ८०० एवं ई० के उपरान्त २५० ई० के बीच में), यह सिद्धान्त जानते थे। कर्न (बृ० सं० की भूमिका, पृ० ५०) ने गर्ग को ई० पू० ५० में रखा है।
थिबो ने, आश्चर्य है, ज्योतिष पर विश्वकोश लिखते समय टाल्मी का भी ठीक से अध्ययन नहीं किया और न आथर्वणज्योतिष, वैखानससूत्र, विष्णुधर्मोत्तर जैसे ग्रन्थों की परीक्षा की, जहाँ ज्योतिष नक्षत्रों पर आधारित है। यह सचमुच बड़े आश्चर्य का विषय है। तीसरी बात यह है कि थिबो ने भारत में रहने वाले यूनानियों द्वारा लिखित संस्कृत ग्रन्थों का लेखा-जोखा नहीं लिया, जिनकी ओर वराह ने अधिकतर संकेत किया है,
और कहीं-कहीं उनकी बातों का विरोध किया और खण्डन भी किया है तथा उत्पल ने जिनके सैकड़ों वचन उद्धृत किये हैं। देखिए स्फुजिध्वज द्वारा लिखित प्राचीन यवनजातक। ऊपर कहा जा चुका है कि फिर्मीकस के कई शतियों पूर्व कम-से-कम ५ भावों के नाम मिलते हैं। यह सम्भव है कि फिर्मीकस ने वराह के पूर्ववर्ती ज्योतिषाचार्यों के उद्धरण लिये हों और वे आचार्य युनानी थे और संस्कृत में ही उन्होंने अपने ग्रन्थ लिखे थे। यह भी सम्भव है कि टाल्मी ने भी ऐसा किया हो, क्योंकि वह भावों को जानता था, यद्यपि उसका भाव-सम्बन्धी विवरण नवसिखवा सा है। इसके अतिरिक्त यह भी बात है कि १२ घरों (भावों) में सभी संस्कृत-ग्रन्थों में यनानी नामानुवर्ती नाम नहीं मिलते। यनानी नामों के अनवी नाम पहले, तीसरे, चौथे, सातवें, दसवें एवं बारहवें भावों तथा कुछ
केन्द्र, पणफर एवं आपोक्लिम) में पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय भावों से प्राप्त कुछ विशिष्ट बातें (जो बृ० जा० में उल्लिखित हैं) फिर्मीकस के कथनों से सर्वथा मेल नहीं खातीं। वराह ने दूसरे भाव को 'कुटुम्ब' एवं 'स्व' (सम्पत्ति) कहा है तो फिर्मीकस ने उसे 'लुक्रम' (अर्थात् कोई अपनी जीविका कैसे कमाएगा) की संज्ञा दी है; वराह में ग्यारहवें भाव का 'आय' नाम है तो फिर्मीकस ने उसे सत्कर्मों की संज्ञा दी है; फिर्मीकस में चौथा भाव पिता या माता-पिता का है तो वराह ने उसे बन्धु (संबन्धी) कहा है। फिर्मीकस में छठा एवं १२वाँ भाव क्रम से सम्पत्ति एवं बन्दीगृह हैं तो बराह ने उन्हें वैर' एवं व्यय' माना है।
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