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पर्मशास्त्र का इतिहास होते हैं। चर राशि वाले अस्थिर तथा स्थिर राशि वाले स्थिर स्वभाव के और द्विस्वभाव वाले मिश्रित स्वभाव के होते हैं। किसी राशि के स्वामित्व की दिशा के ज्ञान से चोरी गयी हुई वस्तु की दिशा का पता चलता है या चोरी करने वाला व्यक्ति पकड़ा जायगा या हृत वस्तु मिलेगी, आदि का ज्ञान होता है। टाल्मी एवं बृहज्जातक की बातों में कहीं साम्य है तो कहीं असाम्य । बृहज्जातक (१।२०) एवं लघुजातक (११६) ने रंगों में भी मेष आदि राशियों को बाँटा है-'लाल, श्वेत, हरा (तोते का रंग), पाटल रंग (पिंक या गहरा लाल), धूम के समान श्वेत, चितकबरा (चित्रविचित्र), काला, सुनहला, पीला, नानाविध रंग, गहरा भूरा (नेवले का रंग), श्वेत। टाल्मी में यह सब नहीं पाया जाता। राशियाँ चार भागों में विभक्त हैं-मानव (मिथुन, कन्या, तुला, धनु का अग्र रूप एवं कुम्भ), चौपाया या चतुष्पद (मेष, वृष, सिंह, धनु का अन्तिम भाग, मकर का अग्रिम भाग), जलीय (कर्कट, मीन, मकर का अन्तिम भाग) एवं कीट (वृश्चिक)। देखिए टेट्राबिब्लोस, ४।४,पृ० ३८९ एवं ३९१, जहाँ पर यह वर्णन कुछ अन्तर से प्राप्त है।
बृहज्जातक (१७१-१२) में उन व्यक्तियों के गुणों का वर्णन है जो चन्द्र युक्त मेष तथा आगे की राशियों में उत्पन्न होते हैं और अन्त में (१३वें श्लोक में) जो फल घोषित हैं वे तभी सत्य उतर सकते हैं जब कि चन्द्र, उसकी राशि एवं राशि-स्वामी प्रबल होते हैं। बृ० जा० (१११९) में ऐसा आया है कि द्विपद राशियाँ (मिथुन, कन्या, तुला, कुम्भ एवं धनु का अग्र भाग) यदि केन्द्र में हों तो दिन में प्रबल होती हैं; चतुष्पद राशियाँ (मेष वृष, सिंह, मकर का अग्र भाग एवं धन का अन्तिम भाग) केन्द्र में रहने से रात्रि में प्रबल होती हैं; शेष अर्थात् जलीय राशियाँ एवं कीट राशियाँ (कुलीर,वृश्चिक, मीन एवं मकर का अन्तिम भाग) केन्द्र स्थान में सन्ध्या समय शक्तिशाली होती हैं। बृ० जा० (१८।२०) में आया है कि वही (१७ वें अध्याय वाला, उपर्युक्त) फल तब भी प्राप्त होता है जब कि व्यक्ति के जन्म का लग्न मेष या कोई अन्य राशि हो।
अब हम ग्रहों के राशियों से सम्बन्धों एवं उनके संयुक्त प्रभावों के उल्लेख पर संक्षेप में प्रकाश डालेंगे। हमने देख लिया है कि वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणों में बृहस्पति को छोड़कर अन्य सभी ग्रहों के स्पष्ट उल्लेख का सर्वथा अभाव है, कुछ वैदिक सूक्तों में पांच ग्रह एवं शक्र (वेन), लगता है, सांकेतिक रूप से आये हैं। असुर के पुत्र स्वर्भान को अन्धकार द्वारा सर्य को ढंकते हए वणित किया गया है, अर्थात ऐसा वर्णन है कि स्वर्भान ने सर्य को अन्धकार से ढक लिया (ग्रहण उत्पन्न कर दिया, देखिए ऋ० ५।४०१५, ६, ८ एवं ९)। छान्दोग्योपनिषद् (८।१३) में आया है कि सत्य ज्ञान से पूर्ण आत्मा सभी पापों से मुक्त होने पर शरीर को उसी प्रकार छोड़ देता है जिस प्रकार अश्व अपने शरीर की धूल को केशों द्वारा झाड़ देता है या चन्द्र राहु से मुक्त हो जाता है। मैत्रायणी उप० में शनि, राहु (ऊर्ध्वगामी पिण्ड) एवं केतु (अधोगामी पिण्ड) का उल्लेख है। किन्तु वैदिक साहित्य में ग्रहों के ज्योतिष-प्रभावों (फलित) का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में ग्रहों के दुष्ट प्रभावों की ओर बहुधा संकेत मिलते हैं, किन्तु वे नक्षत्रों तक ही सीमित हैं। राहु एवं केतु आकाश में विश्व-क्षय के लिए उदित होते हुए दर्शित हैं।" कौटिल्य (अर्थशास्त्र २, अध्याय २४, पृ० ११६ ) ने बृहस्पति के स्थान, गमन एवं मेघीय गर्भाधान से,
१९. अश्व इव रोमाणि विधूय पापं चन्द्र इव राहोर्मुखात्प्रमुच्य धूत्वा शरीरमकृतं कृतात्मा ब्रह्मलोकमभिसम्भवामि। छा० उप० (८।१३)।
२०. शनिराहुकेतूरगरक्षोयक्षनरविहगशरभभादयोऽधस्तादुद्यन्ति । मैत्रायणी उ० (७६)। २१. राहुकेतू यथाकाशे उदितौ जगतः क्षये। कर्णपर्व (८७१९२)।
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