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________________ २७६ धर्मशास्त्र का इतिहास मन्त्र-प्राप्ति, भूत जगाना, बन्दी बनाना, पीटना, सम्बन्ध तोड़ना आदि किये जाते हैं; उग्र नक्षत्रों का प्रयोग दूसरे की सम्पत्ति को नष्ट करने, धोखा देने, बन्दी बनाने, विष देने, आगजनी करने, हथियार से मारने एवं मार डालने में होता है; क्षिप्र (लघु) नक्षत्र बिक्री करने, प्रेम करने, ज्ञान प्राप्त करने, अलंकरण, कलाओं, शिल्पों (यथा बढ़ईगिरी), ओषधियों, यात्राओं के लिए घोषित हैं; मृदु नक्षत्र मित्र-प्राप्ति, काम-कृत्यों, वस्त्रों, आभूषणों, शुभ उत्सवों (विवाह आदि) एवं गाना गाने में लाभप्रद हैं; मृदु-तीक्ष्ण (या साधारण) नक्षत्र मिला-जुला फल (जब मृदु या भीषण कर्म किये जाते हैं) देते हैं; चल नक्षत्र अध्रुव (अस्थिर) कर्म में लाभप्रद होते हैं। मुहूर्तमार्तण्ड में आया है कि विज्ञ जन सफलता के लिए नक्षत्रों के नामों एवं दलों के अनुसार कर्म करते हैं। यह द्रष्टव्य है कि ज्योतिषरत्नमाला (३।९) एवं मुहूर्तचिन्तामणि (२।२-८) आदि ने रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार, शनिवार को क्रम से ध्रुव, चल, उग्र, मिश्र, लघु, मृदु एवं तीक्ष्ण कहा है, और बतलाया है कि इन दलों के तुल्य जो कर्म हैं उन्हें क्रम से उन्हीं सप्ताह-दिनों में करना चाहिए (संज्ञातुल्यमिहाचरन्ति सुधियो कार्य हि संसिद्धये । मु० मा० २।३)। बृ० जा० (अध्याय १६।१-२) ने अश्विनी से लेकर आगे के २७ नक्षत्रों में उत्पन्न लोगों की विशेषताओं पर १४ श्लोक लिखे हैं, यहाँ हम उदाहरण के लिए दो श्लोकों का अनुवाद दे रहे हैं-'अश्विनी में उत्पन्न व्यक्ति आभूषणों का प्रेमी, होता है, सुन्दर होता है, सुभग (दर्शनीय स्वरूप वाला या मोहक) होता है, (प्रत्येक बात में) दक्ष होता है एवं मतिमान् (बुद्धिमान्) होता है; भरणी में उत्पन्न व्यक्ति कृतनिश्चयी, सत्यवादी, रोगरहित, दक्ष, चिन्तामुक्त (सुखी) होता है; कृत्तिका में उत्पन्न व्यक्ति बहुभुक्त (पेटू अर्थात् अधिक खाने वाला, परदारप्रेमी, अधैर्यवान्, तेजस्वी, एवं प्रसिद्ध होता है; रोहिणी में उत्पन्न व्यक्ति सत्यवादी, पवित्र, प्रिय बोलने वाला (प्रियंवद), स्थिरमति एवं सुरूप होता है।६ राजमार्तण्ड (श्लोक १६-४०) ने २७ नक्षत्रों के पर्याय दिये हैं, जिनके साथ नक्षत्रों के स्वामियों के नाम और नक्षत्रस्वामियों के पर्याय भी सम्मिलित हैं। ज्योतिषरत्नमाला, भुजबल एवं मुहूर्तचिन्तामणि (२२२-२३) ने अभिजित् के साथ २८ नक्षत्रों को चार-चार के सात दलों में बाँटा है, जो ये हैं--अन्धाक्ष, मन्दाक्ष, मध्याक्ष एवं स्वक्ष। उन्होंने यह भी कहा है कि अन्धाक्ष में चुरायी गयी सम्पत्ति शीघ्र ही फिर पायी जा सकती है, मन्दाक्ष में चुरायी हुई प्रयत्न से, मध्याक्ष में चुरायी गयी नहीं प्राप्त होती किन्तु स्वामी को पता चलेगा कि वह चोर द्वारा ले जायी गयी है; स्वक्ष या सुलोचन में चुरायी गयी न तो मिलेगी और न उसके विषय में कुछ पता चलेगा। और देखिए बृ० सं० (अध्याय १४ एवं १५।१-२७), जिसका एक श्लोक यों है-'कृत्तिका में श्वेत पुष्प होते हैं, आहिताग्नि (जो पवित्र अग्नियाँ जलाते हैं), मन्त्रज्ञ (वेद मन्त्रों का ज्ञाता), सूत्रों एवं भाष्यों का ज्ञाता, आकारिक (खानों या भाण्डारों के अधिकारी-गण), नापित (नाई), ब्राह्मण, पुरोहित, घटकार एवं अब्दज्ञ (ज्योतिषाचार्य) उत्पन्न होते हैं। १६. प्रियभूषणः सुरूपः सुभगो दक्षोश्विनीष, मतिमांश्च । कृतनिश्चयसत्यारुग्दक्षः सुखितश्च भरणीषु॥ बहुभुक्परदाररतस्तेजस्वी कृत्तिकास विख्यातः। रोहिण्यां सत्यशुचिः प्रियंवदः स्थिरमतिः सुरूपश्च ॥ बृहज्जातक (१६३१-२) । और देखिए बृ० सं० (अध्याय १०१)। १७. आग्नेये सितकुसुमाहिताग्निमन्त्रज्ञसूत्रभाष्यज्ञाः। आकरिकनापितद्विजघटकारपुरोहिताब्वनाः॥ संहिता (१५।१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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