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________________ २७५ मुहूर्त-संबन्धी अन्य और नक्षत्रों का विचार में यों है--किन ग्रहों की स्थितियाँ एवं दृष्टियाँ, कौन युग, तिथियाँ, नक्षत्र, मास एवं देह-मन की दशाएँ शुभ कर्मों में वजित हैं ; संस्कारों (यथा गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, कर्णछेदन, चौल, उपनयन, वेदाध्ययन-समाप्ति) के उचित काल; विवाह के विषय (यह लगभग पूरे ग्रन्थ के एक तिहाई भाग में है, ५५ श्लोक में); गृह्याग्नि को जलाने के काल; गृह-निर्माण एवं प्रवेश के काल; यात्रा या आक्रमण करने के काल; शुभाशुभ शकुन; राज्याभिषेक, मूल्यवान् वस्त्रों एवं आभूषणों का धारण, कृषि-कर्म, पशुओं का क्रय-विक्रय, तिल एवं तिष्यफला के साथ स्नान, लुप्त वस्तुओं को प्राप्त करने, कूप-पुष्कर खोदने के, अधिक या अल्प समय के लिए अनध्याय के काल; शरीर पर छिपकली या गिरगिट गिर जाने के फल ; जन्म की राशि से कौन ग्रह शुभ या अशुभ हैं तथा किस राशि में हैं; संक्रान्तियों का पुण्यकाल। यह द्रष्टव्य है कि इन कृत्यों में बहुत-से आज भी सम्पादित होते हैं, यद्यपि इनके सम्पादन में कमी होती जा रही है। यह जान लेना चाहिए कि शकुनों के विषय में वराहमिहिर ने सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि अन्य जन्मान्तरों में किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल ही लोगों की यात्रा या आक्रमण के समय शकुनों द्वारा अभिव्यक्त होता है। जहाँ एक ओर विवाह जैसे पवित्र अवसरों पर बाल बनवाने, नवीन वस्त्र धारण करने के विषय में मुहूर्त निकाला जाता था, वहीं चौर्य कर्म के लिए भी मुहूर्तमुक्तावली में मुहूर्त निकालने की व्यवस्था है, यथा जब आश्लेषा, मृगशीर्ष, भरणी, स्वाती, घनिष्ठा, चित्रा, अनुराधा नक्षत्रों में, शनिवार या मंगलवार को यदि रिक्ता तिथियों (चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी) में चोरी की जाती है तो वह सफल होती है। यह मुहूर्त निकालने के विषय में एक विचित्र उत्सुकता या पागलपन का परिचायक है। यह आवश्यक है कि हम थोड़ा जातक के कुछ अंशों का परिज्ञान कर लें। जातक की सभी बातों का उल्लेख करने में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ बन जायगा, अतः हम संक्षेप में मुख्य-मुख्य बातों की ओर संकेत करेंगे। नक्षत्रों, उनके देवताओं (स्वामियों) एवं उनकी श्रेणियों के अतिरिक्त हमें कुण्डली में राशियों, ग्रहों एवं भावों (घरों या स्थानों) का ज्ञान भी रखना होगा। इस विषय में हम वराह की बृहत्संहिता एवं बृहज्जातक, सारावली, श्रीपति की ज्योतिषरत्नमाला, राजमार्तण्ड तथा गणेश के जातकालंकार (१६१३-१४ ई० में प्रणीत) ग्रन्थों पर निर्भर रहेंगे। २७ या २८ नक्षत्रों एवं उनके देवताओं का विवरण पहले ही दिया जा चुका है। यह द्रष्टव्य है कि नक्षत्रों के देवता से अधिकतर नक्षत्र या तिथि का भी संकेत मिलता है। यहाँ पर सर्वप्रथम नक्षत्र-विभाजन का उल्लेख होगा। बृहदारण्यकोपनिषद् (६।३।१) से प्रकट है कि नक्षत्र बहुत प्राचीन काल (लगभग ई० पू० १०००) में ही पुण्य एवं पाप (शुभ एवं अशुभ) तथा नारी एवं पुरुष (पुंस) के रूप में उल्लिखित हो चुके थे। वेदांगज्योतिष (याजुष, श्लोक ४२) ने नक्षत्रों को उग्र एवं क्रूर भागों में बाँटा है (उपाण्याा च चित्रा च विशाखा श्रवणोश्वयुक्। क्रूराणि तु मघा स्वाती ज्येष्ठा मूलं यमस्य यत् ॥)। बृहत्संहिता (९७।६-११) में वे ध्रुव (या स्थिर), तीक्ष्ण (या दारुण), उप (या क्रूर), क्षिप्र (या लघु), मृदु (मैत्र), मृदुतीक्ष्ण (या साधारण या मिश्र), चर (या चल) कहे गये हैं। बृ० सं० (९७१६-११) में आया है कि ध्रुव नक्षत्रों में राज्याभिषेक, शान्ति कृत्य, वृक्षारोपण, नगर-स्थापन, कल्याण-कर्म, बीजारोपण एवं अन्य स्थिर कर्म किये जाने चाहिए; तीक्ष्ण नक्षत्रों में हानि करने में सफलता, १५. अन्यजन्मान्तरकृतं पुंसां कर्म शुभाशुभम् । यत्तस्य शकुनः पाकं निवेदयति गच्छताम् ॥ बृहद्योगयात्रा (२३३१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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