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________________ २७४ धर्मशास्त्र का इतिहास के भयंकर प्रभावों एवं क्लेशों के कारण इसके प्रभाव के प्रसार को शक्तिशाली गति मिली है। लाखों की संख्या में छपने वाले समाचार-पत्रों में प्रति दिन एवं प्रति सप्ताह नक्षत्रों से सम्बन्धित भविष्यवाणियाँ निकलती हैं। किन्तु ये भविष्यवाणियाँ अधिकतर अस्पष्ट होती हैं। बारह राशियों में प्रत्येक में लाखों व्यक्ति होंगे, किसका क्या भाग्य है ? ऐसा कहा जाता है कि केवल अमेरिका में २५००० रजिस्टर्ड ज्योतिषी हैं। टॉल्मी ने फलित ज्योतिष के पक्ष में बहुत सी बातें कही हैं। उसने इस बात पर बल देकर कहा है कि नक्षत्रों के प्रभावों की जानकारी करने के पूर्व ज्योतिषी को यह जान लेना आवश्यक है कि व्यक्ति किस देश, समाज, राष्ट्रीयता, रहन-सहन, आचार-विचार एवं वातावरण का है, नहीं तो भविष्यवाणी करने में भयंकर त्रुटियाँ हो सकती हैं-इथियोपिया का निवासी गोरा एवं सीधे केशों वाला तथा जर्मनी का निवासी काला एवं धुंघराले बालों वाला सिद्ध हो जायगा, आदि-आदि । लघुजातक (४११) में उत्पल ने भी इसी प्रकार कहा है‘(ज्योतिषी को चाहिए कि) वह व्यक्ति की जाति के परिज्ञान के उपरान्त उसकी मूर्ति का निर्देश करे, क्योंकि श्वपाक (चाण्डाल) एवं निषाद काले होते हैं; उसे यह सोचना चाहिए कि (जिसकी कुण्डली की जाँच हो रही है) वह व्यक्ति किस कुल में, गोरे लोगों या काले लोगों के यहाँ, उत्पन्न हुआ, और किस देश में, क्योंकि कर्णाटक के लोग काले, विदेह के श्याम एवं कश्मीर के गोरे होते हैं।' स्पष्ट है कि भारतीय ज्योतिषाचार्यों ने भी देशाचार एवं लोकाचारों के ज्ञान पर बल दिया है। राजमार्तण्ड (श्लोक ३९९-४०१) में आया है-'सर्वप्रथम लोकाचारों पर विचार करना चाहिए; कतिपय शताब्दियों से जो स्थिर है, उस पर विचार करना चाहिए; पण्डित लोग बुरा लगने वाली (लोकदुष्ट) बात का त्याग करते हैं; अतः ज्योतिर्विद् को लोकमार्ग से चलना चाहिए। कुल एवं देश की चित्तवृत्ति का खण्डन नहीं करना चाहिए...।' विपत्तियों या घटनाओं से सम्बन्धित सामान्य ज्योतिविद्या, टाल्मी के अनुसार, शाखा या संहिता के अन्तर्गत (संकीर्ण दृष्टिकोण से) आती है। मुहूर्त-सम्बन्धी साहित्य बड़ा विशाल है। काल पर लिखे गये सभी ग्रन्थ, यथा हेमाद्रि, कालमाधव, कालतत्त्वविवेचन, निर्णयसिन्धु आदि वास्तव में मुहूर्त पर ही हैं, क्योंकि वे संस्कारों एवं धार्मिक कृत्यों के उचित काल का विवेचन करते हैं। 'मुहूर्त' शब्द से युक्त ग्रन्थ ये हैं-~-मुहूर्तकल्पद्रुम (विट्ठल दीक्षित कृत, १६२८ ई०), मुहूर्तगणपति (गणपति रावल कृत, १६८५ ई०), अनन्तपुत्र राम द्वारा लिखित मुहूर्तचिन्तामणि (राम के बड़े भाई नीलकण्ठ के पुत्र गोविन्द की इस पर टीका 'पीयूषधारा' है, १६०४ ई.), केशवपुत्र गणेश कृत' मुहूर्ततत्त्व, विद्यामाधव कृत मुहुर्तदर्शन (इस पर उसके पुत्र विष्णु की टीका है मुहूर्तदीपक), नागदेव कृत मुहूर्तदीपक, देवगिरि के निकट टायर ग्राम के निवासी अनन्त के पुत्र नारायण का मुहूर्तमार्तण्ड (१५७२ ई०) एवं रघुनाथ कृत मुहूर्तमाला तथा मुहूर्तमुक्तावली। इनमें केवल तीन ही मुद्रित हैं-मुहूर्तदर्शन, मुहूर्तचिन्तामणि तथा मुहूर्तमार्तण्ड, अन्य पाण्डुलिपियों में हैं (बाम्बे एशियाटिक सोसाइटी, लाइब्रेरी)। इस प्रकरण में श्रीपति (१०३९ ई०) द्वारा लिखित ज्योतिषमार्तण्ड, भोज रचित राजमार्तण्ड तथा अन्य काल-सम्बन्धी ग्रन्थों का सहारा लिया गया है। मुहूर्तचिन्तामणि (४८० श्लोकों में), मुहर्तदर्शन (६०० श्लोकों में टीका के साथ) विशाल ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों की सभी बातें देना सम्भव नहीं है। मुहूर्तमार्तण्ड (१६१ श्लोकों में) ने मध्यम मार्ग अपनाया है। इसके विषय संक्षेप १४. सत्त्वं रजस्तमो वा त्रिशांशे यस्य भास्करस्तादृक् । बलिनः सदृशी मूतिर्बुद्ध्वा वा जातिकुलदेशान् ॥ जातिं बुद्ध्वा मूर्तिनिर्देशः, यतः श्वपाकनिषादा जातित एव कृष्णा भवन्ति ।...कर्णाटा: कृष्णा वैदेहाः श्यामाः काश्मीरा गौराः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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