________________
२७२
पर्मशास्त्र का इतिहास यह द्रष्टव्य है कि वराहमिहिर अधिकतर इस सिद्धान्त का त्याग करते हैं कि कुण्डली एक चित्र मात्र (नक्शा) है जो प्रभावों (परिणामों) को अभिव्यंजित करती है, प्रत्युत वे निश्चयात्मक भाषा में ग्रहों के विषय में उद्घोषित करते हैं कि वे स्थितियों के नियामक भी होते हैं। दो-एक उदाहरण पर्याप्त होंगे। बृहज्जातक (५।६) में उन्होंने कहा है-'ऋषियों की घोषणा है कि वह व्यक्ति निश्चित रूप से पर पुरुष से उत्पन्न है, जिसकी कुण्डली में बृहस्पति की दृष्टि लग्न पर या चन्द्र पर या सूर्ययुक्त चन्द्र पर न हो या यदि चन्द्र सूर्य से युक्त हो और उसके साथ दुष्ट (हानिकर) ग्रह (मंगल या शनि) हों।" पुनः बृहज्जातक (६।११) में आया है-'प्रथम, पाँचवें, सातवें, आठवें, नवे या बारहवें घर में किसी हानिकर (दुष्ट या अशुभ) ग्रह से समन्वित चन्द्र से (नये उत्पन्न शिशु की) मृत्यु होती है, यदि वह शुक्र या बुध या बृहस्पति से युक्त न हो या वह इन तीनों शक्तिशाली ग्रहों में किसी एक की दृष्टि में न हो (तो भी वैसा होता है)।' पुनः बृहज्जातक (१४।१) में आया है--'जब सूर्य किसी अन्य ग्रह से समन्वित हो तो वह निम्न फल उत्पन्न करता है-चन्द्र से समन्वित होने पर व्यक्ति लकड़ी की मशीन बनाने वाला या पत्थर से कार्य करने वाला होता है; मंगल से बुरे आचरणों वाला; बुध से कुशल, बुद्धिमान् प्रसिद्ध एवं प्रसन्न व्यक्ति ; बृहस्पति से क्रूर या दूसरों के कार्य को करने की उत्कट इच्छा वाला; शुक्र से रंगमंच की जीविका करने वाला या आयुधजीवी; शनि से धातुविशेषज्ञ या विभिन्न प्रकार के बरतनों को बनाने वाला होता है। सारावली (३३।४८-६१) ने बहधा विभिन्न स्थितियों के फलों का उल्लेख किया है।
कुछ और कहने के पूर्व यह कह देना आवश्यक है कि ज्योतिष में अटल विश्वास करने वाला केवल भारत ही नहीं था। सिकन्दर के उपरान्त सम्पूर्ण यूरोप में भी ऐसी ही बात पायी जाती थी। यह हमने देख लिया है कि बेबिलोन के ज्योतिषी लोग राजा को सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों की अवस्थितियां बताया करते थे (देखिए आर० कम्पवेल टाम्सन कृत 'दी रिपोर्ट आव दी मैजिशीयनस एण्ड ऐस्ट्रालाजर्स आव निनेवेह एण्ड बेबिलोन', जिल्द १ एवं २, संख्या ९, १५, १६, २१, ३२, ३३, ५२, ४३, ६३, ६६, ६७, ७२, ७४, ७६, ८६, १५१, १६४) । किन्तु कुण्डली-युक्त ज्योतिष का विकास वहाँ कालान्तर में हुआ। और देखिए 'ओल्ड टेस्टामेण्ट इजाइआह' (ई० पू० ७५९-७१०) : ४७।१ एवं १५; डैनिएल (४।७, ११२० एवं २१२ तथा २७)। चाल्डियनों के अनुसार पाँच ग्रह विशेषतः मनुष्यों के भाग्यों को नियन्त्रित करते थे और इन ग्रहों से बेबिलोन के पाँच नगर समन्वित माने जाते थे। और देखिए बौचे लेक्लेर्क ('ल' ऐस्ट्रालाजी ग्रीक, पृ० ५७२) । हेरोडोटस (२३८२) ने मिस्र देशवासियों के विचित्र व्यवहारों की चर्चा की है, यथा-वे प्रत्येक मास एवं दिन को किसी देवता के लिए पवित्र मानते थे। वे ऐसा समझते थे कि जन्म के दिन से व्यक्ति के भाग्य, चरित्र एवं मृत्यु सूचक देवतायुक्त दिन निश्चित कर दिये जाते हैं। किन्तु इससे कुण्डली-ज्योतिष (होराशास्त्र) की ओर निर्देश नहीं मिल पाता। मिस्रियों को सिकन्दर-युग के पूर्व राशि-ज्ञान प्राप्त नहीं था। आरम्भिक यूनानी ज्योतिषाचार्यों को फलित ज्योतिष का ज्ञान नहीं था, उन्होंने सिकन्दर द्वारा बेबिलोन पर अधिकार कर लेने के उपरान्त बेबिलोनी लोगों से यह ज्ञान लिया, क्योंकि तभी बेबिलोन के ज्योतिषाचार्य यूनान पहुँचने लगे। इसके बाद ही यूनानी मस्तिष्क ज्योतिष से प्रभावित
१३. न लग्नमिन्दुं च गुनिरीक्षते न वा शशांक रविणा समागतम् । सपापकोऽर्केण युतोथवा शशी परेण जातं प्रवदन्ति निश्चयात् ।। बृहज्जातक (५६)। लघुजातक (४४) में भी इसी के समान उक्ति है। सारावली में एक ऐसा ही श्लोक है 'पश्यति न गुरुः शशिनं लग्नं च दिवाकर सेन्दुम् । पापयुतं वा सार्क चन्द्रं यदि जारजातः स्यात्॥' यह व्रष्टव्य है कि उत्पल को वराहमिहिर के सिद्धान्त एवं कथन का समर्थन करना आवश्यक लगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org