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________________ देव (पूर्वजन्म-कर्म) का सूचक ज्योतिष २७१ सभा में पूर्व-निश्चित किया जाता है। ये सिद्धान्त प्रथम को छोड़ कर वराहमिहिर एवं उनके पश्चात् होने वाले लेखकों के सिद्धान्तों से भिन्न हैं। बेबिलोन एवं ग्रीस (यूनान) में कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त नहीं पाये जाते। अतः वहाँ के लोग परोक्ष रूप से अपने ज्योतिष द्वारा लोगों को उच्चाशय वाला नहीं बना सकते थे कि वे वर्तमान जीवन को सदाचारपूर्ण बना सकें। प्राचीन काल की अनैतिक एवं शिशुवत् दन्तकथाओं के रहते हुए भी ग्रह-सम्बन्धी भावना के प्रभाव एवं पूजा ने अधिकांश मस्तिष्कों को पकड़ रखा था और लोगों को वह अपेक्षाकृत बहुत अधिक बुद्धिवादी एवं विश्वसनीय जंचती थी। कल्याणवर्मा की सारावली (२।२ एवं ४) ने इसका अनुसरण किया है और जोड़ा है कि लोगों को इस शास्त्र में 'जातक' नाम से जो ज्ञात है, वह होरा' नाम से विख्यात है, या होरा' शब्द (जो 'अहोरात्र' के आदि एवं अन्तिम अक्षर 'अ' एवं 'त्र' के विलोप से बना है) 'दैवविमर्शन' (नियति के विषय में विवेचन) का पर्यायवाची ही है। संस्कृत ज्योतिष में 'होरा' के दो अन्य अर्थ भी हैं; यथा लग्न (वह राशि या लक्षण जो किसी विशिष्ट क्षण में पूर्व क्षितिज में उदित होता रहता है) एवं राशि का अर्ध अंश (बृहज्जातक, ११९)। ज्योतिष एवं ज्योतिषियों की महत्ता एवं उपयोगिता के विषय में अतिशय प्रशंसात्मक वचन कहे गये हैं। सारावली (२५) में आया है-'धनार्जन में जातक (ज्योतिष) से बढ़कर कोई अन्य इतना बड़ा सहायक नहीं है, आपत्तियों के समुद्र में यह पोत के समान है तथा यात्रा या आक्रमण में यह मन्त्री के समान है। वराहमिहिर ने भी गर्व के साथ कहा है- 'जो वन में रहते हैं (वानप्रस्थ या मुनि हैं), सांसारिक विषय-भोगों से रहित हैं और विना सम्पत्ति के हैं, वे भी नक्षत्रों की गति के जानकार ज्योतिषी से प्रश्न पूछते हैं। बिना ज्योतिषी के राज समान मार्ग में अवस्थित हैं, जैसे कि बिना दीप के रात्रि तथा विना सूर्य के नभ है। यदि ज्योतिःशास्त्रज्ञ एवं ज्योतिषी न हो तो शुभ मुहूर्त (काल), तिथि, नक्षत्र, ऋतुएँ एवं अयन (सूर्य की उत्तरायण एवं दक्षिणायन गतियाँ) आकुल हो उठे अर्थात् उनसे संभ्रम उत्पन्न हो जाय । जो कुछ एक देश-काल सर्वज्ञ सांवत्सर (ज्योतिषी) जानता है वह एक सहस्र हाथी या चार सहस्र अश्वारोही नहीं जान सकते या कर सकते' (बृहत्संहिता, २१७-९)। और देखिए कालविवेक (पृ० ४)। राजमार्तण्ड (श्लोक ४) में आया है-'पुरोहित, गणक (ज्योतिःशास्त्रज्ञ), मन्त्री एवं दैवज्ञ (ज्योतिषी, फलितज्ञ)-ये सभी चाहे कितना भी कष्ट या आपत्ति हो, राजा द्वारा पोषित (रक्षित) होने चाहिए, जैसा कि स्त्रियों के विषय में किया जाता है। १२ ९. आद्यन्तवर्णलोपाखोराशास्त्रं भवत्यहोरात्रम् (५।१ रात्रात्)।...जातकमिति प्रसिद्धं यल्लोके तदिह कोय॑ते होरा। अथवा दैवविमर्शनपर्यायः खल्वयं शब्दः ॥ सारावली (२२२ एवं ४)। १०. अर्जिने सहायः पुरुषाणामापवर्णवपोतः। यात्रासमये मन्त्री जातकमपहाय नास्त्यपरः॥ सारावली (२१५)। ११. वनं समाभिता येपि निर्ममा निष्परिग्रहाः। अपि ते परिपृच्छन्ति ज्योतिषां गतिकोविदम् ॥ अप्रदीपा यथा रात्रिरनावित्य यथा नमः। तथाऽसांवत्सरो राजा भ्रमत्यन्ध इवाध्वनि ॥ मुहर्ततिथिनक्षत्रमतवश्चायने तथा। सर्वाव्येवाकुलानि स्युनं स्यात्सावत्सरो यदि ॥ बृहत्संहिता (२।७-९) । न तत्सहनं करिणां वाजिनां वा चतुर्गुणम् । करोति देशकालको यदेकी देवचिन्तकः॥ बृ० सं० (२२२०)। १२. पुरोषा गणको मन्त्री दैवज्ञश्च चतुर्यकः । एते राज्ञा सदा पोष्याः कृच्छ्रेणापि स्त्रियो यथा ॥ राजमार्तण्ड (श्लोक ४)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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