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________________ २७० धर्मात्त्र का इतिहास - ' जो-जो ग्रह दुःस्थ (दुष्ट या बुरे नक्षत्र से उपहत या प्रभावित ) हों उनकी पूजा यत्न से की जानी चाहिए । ब्रह्मा ने ग्रहों को वर दिया है कि जब पूजित हो जाओ तब पूजक का कल्याण करो। राजा का उत्कर्ष एवं अपकर्ष ग्रहों पर आधारित है; अतः ग्रह पूज्यतम हैं ।' निःसन्देह याज्ञ० ( ११३४९, ३५१ ) ने कहा है- 'कर्मसिद्धि देव एवं पौरुष पर अवलम्बित है, इन दोनों में देव पूर्वजन्म में किया गया कर्म (इस जन्म में अभिव्यक्त) ही है । जिस प्रकार एक पहिए से रथ नहीं चलता है, उसी प्रकार बिना पौरुष के दैव की सिद्धि नहीं होती ।" दैव एवं पौरुष की तुलनात्मक महत्ता पर धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में, विशेषतः महाभारत में, अधिक विवेचन है। तीन विचारधाराएँ भी हैं - ( १ ) दैव सर्वशक्तिमान् है, (२) पौरुष सर्वोपरि है एवं (३) दोनों में मध्य का मार्ग प्रशस्त है ( देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड ३ ) । बृहद्योगयात्रा का प्रथम अध्याय (२० श्लोक ) एवं योगयात्रा का प्रथम अध्याय ( २२ श्लोक ) दैव (भाग्य) एवं पुरुषकार ( पौरुष ) पर विवेचन उपस्थित करते हैं। इतना होने पर भी राजा से लेकर रंक तक सभी लोग ज्योतिष के पूर्ण प्रभाव में थे। आज भी बहुत-से पढ़े-लिखे लोग तक ज्योतिष बड़े प्रभाव में हैं । वह ज्योतिष जो कुण्डलियों का निर्माण करता है और व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित है, होराशास्त्र या जातक के नाम से विख्यात है । वराहमिहिर के काल में विद्वान् लोग भी 'होरा' शब्द के उद्गम के विषय में अनभिज्ञ थे। बृहज्जातक (१1३ ) में आया है - " कुछ लोगों के मत से 'होरा ' अहोरात्र के पहले एवं अन्तिम अक्षर के निकाल देने से बना है । होराशास्त्र पूर्वजन्मों में किये गये अच्छे या बुरे फलों को भली-भाँति व्यक्त करता है ।" यह द्रष्टव्य है कि बृहज्जातक दो बातों पर बल देता है - ( १ ) यह होराशास्त्र को कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्तों से समन्वित करता है ( कर्म को भोग से नष्ट करने के लिए पुनर्जन्म ), ( २ ) शास्त्र बताता है कि कुण्डली एक नक्शा या योजना मात्र है जो पूर्व जन्म में किये गये कर्मों से उत्पन्न किसी व्यक्ति के जीवन के भविष्य की ओर निर्देश करती है । होराशास्त्र यहाँ यह नहीं कहता कि व्यक्ति की कुण्डली के ग्रह उसे यह या वह करने के लिए बाध्य करते हैं, प्रत्युत वह कहता है कि कुण्डली केवल यह बताती है कि व्यक्ति का भविष्य किन दिशाओं की ओर उन्मुख है । ये सिद्धान्त पश्चात्कालीन मध्यवर्ती लेखकों द्वारा भी दुहराये गये हैं। उदाहरणार्थ, रघुनन्दन ने अपने उद्वाहतत्त्व ( पृ० १२५ ) में दीपिका के मत को स्वीकार किया है कि ग्रह केवल यह बताते हैं कि पूर्व जन्मों में पाप किये गये थे, ग्रह स्वयं बुरे प्रभाव नहीं डालते। उन्होंने मत्स्यपुराण का उद्धरण दिया है-पुराने जीवनों (पूर्व जन्मों) में किये गये पाप वर्तमान जीवन में रोगों, दुर्गतियों एवं प्रियजन - मृत्यु के रूप में प्रतिफल देते हैं। सम्भवतः एक तीसरा अन्तहित सिद्धान्त भी था, यथा नक्षत्र ऐसे मन्दिर हैं जिनमें देवता निवास करते हैं ( नक्षत्राणि वै सर्वेषां देवानामायतनम्, श० ब्रा० १४।३।२।१२; देवगृहा व नक्षत्राणि । य एवं वेद गृह्येव भवति, ते० ब्रा० १।२।५।११) । और देखिए मत्स्य ० ( १२७।१४-१५) । बेबिलोन एवं असीरिया के लोगों ने अपने ज्योतिष को तीन धारणाओं पर निर्भर समझा था -- यथा ( १ ) नक्षत्र मन्दिर हैं, जिनमें देव रहते हैं; (२) नक्षत्र भविष्य के विषय में मनुष्य को देवों का मन्तव्य बताते हैं; (३) मानव इतिहास मार्दक की अध्यक्षता में स्वर्गिक ७. देवे पुरुषकारे च कर्मसिद्धिर्व्यवस्थिता । तत्र वैवमभिव्यक्तं पौरुषं पौर्वदेहिकम् ॥ यथा ह्येकेन चक्रेण रथस्य न गतिर्भवेत् । एवं पुरुषकारेण बिना दैवं न सिध्यति ॥ याज्ञ० ( १।३४९, ३५१ ) । ८. अत एव दीपिकायाम्-ये ग्रहा रिष्टिसूचकाः -- इत्यनेन ग्रहाणां पूर्वसिद्धपापबोधकत्वमिति, न तु पापजनकत्वम् । तथा च मत्स्यपुराणम् । पुरा कृतानि पापानि फलन्त्यस्मिस्तपोधनाः । रोगदौर्गत्यरूपेण तथैवेष्टवर्धन च । तद्विघाताय वक्ष्यामि सदा कल्याणकारकम् ॥ उद्वाहतत्त्व ( पृ० १२५ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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