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________________ २६८ धर्मशास्त्र का इतिहास के मत से दो नाडिकाएँ एक मुहूर्त की घोतक (ऋग्वेद का वेदांगज्योतिष, श्लोक ७) हैं और सब से बड़े एवं सब से छोटे दिन में ६ मुहुर्तों (१२ घटिकाओं) का अन्तर पड़ता है। मनु (१९६४), कौटिल्य (अर्थशास्त्र २, अध्याय २०, पृ० १०७-१०८, शामशास्त्री का सम्पादन) एवं कतिपय पुराणों ने रात-दिन को ३० मुहूर्तों वाला कहा है। अतः ब्राह्मण-काल के बाद मुहूर्त का दूसरा अर्थ रहा है 'दो घटिकाओं की अवधि। कौषीतकि-उपनिषद् (१।३) ने 'येष्टिह' नामक मुहूर्तों का उल्लेख किया है। ऐसा प्रकट होता है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व दिन के १५ मुहतों के नाम तै० ब्रा० में उल्लिखित नामों से भिन्न पड़ गये थे। ब्राह्ममुहूर्त एक प्रसिद्ध मुहूर्त है, जिसका उल्लेख बौ० घ० सू० (२।१०।२६), मनु (४।९२) एवं याज्ञ० (११११५) ने किया है। महाभारत (द्रोणपर्व, ८०।२३) में ब्राह्ममुहूर्त का उल्लेख है। कालिदास के रघुवंश (५।३६) में आया है कि अज का जन्म ब्राह्ममुहूर्त (ब्रह्मा देवता वाले अभिजित् में) में हुआ था। कुमारसम्भव (७।६) में आया है कि पार्वती की नारी-सम्बन्धिनियों ने उनको मैत्र मुहूर्त में, जब चन्द्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में था, विवाह के लिए अलंकृत किया था। और देखिए अन्य शुभ तिथियों के लिए सभा० (२११५, २५।४), वन० (२५३।२८)। आथर्वण ज्योतिष (१॥६-११) में १५ मुहुर्तों के नाम ये हैं---रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र, वैराज, विश्वावसु, अभिजित् (मध्याह्न में), रौहिण, बल, विजय, नैऋत, वारुण, सौम्य, भग। मुहूर्तदर्शन (या विद्यामाघवीय) में भी ये नाम हैं, कुछ अन्तर यह है-विश्वावसु के स्थान पर गान्धर्व है, वारुण के पूर्व शाक जोड़ दिया गया है और सौम्य छोड़ दिया गया है और कहा गया है कि अभिजित्, वैराज, श्वेत, सावित्र, मैत्र, बल एवं विजय शुभकार्य-सिद्धिजनक हैं। और देखिए महाभारत, आदि० (१२३॥६), उद्योग० (६।१७-१८)। मनु (२।३०) में आया है कि शिशु के जन्म के १०वें या १२वें दिन शुभ तिथि, मुहूर्त एवं नक्षत्र में नामकरण करना चाहिए। ऐसा माना जा सकता है कि मनु एवं विद्यामाधवीय में ७ शुभ मुहूर्त समान ही हैं। पुराणों में भी १५ नाम आये हैं, किन्तु भिन्नता के साथ। मत्स्य (२२।२) में अभिजित् एवं रौहिण नाम आये हैं और कहा गया है कि नये गृह के निर्माण के लिए आठ शुभ मुहूर्त हैं। इसमें कुतप नामक आठवें मुहूर्त का उल्लेख है (२२।८४)। उपर्युक्त बातों से प्रकट है कि मुहूर्तों के नाम दो बार पड़े, एक बार त० ब्रा० में और दूसरी बार आथर्वणज्योतिष एवं पुराणों में। एक तीसरा युग ऐसा आया कि ये नाम पृष्ठभूमि में पड़ गये या व्यावहारिक रूप से विलुप्त-से हो गये, जैसा कि वराहमिहिर और अन्य ग्रन्थों के अवलोकन से प्रकट होता है। केवल ३० मुहूर्तों के देवताओं के नाम रह गये और उन्हीं से उनके नाम द्योतित होने लगे। बृहत्संहिता (४२।१२ एवं ९८१३) में वे नाम नहीं आते, किन्तु वहयोगयात्रा में ३० देवताओं के नाम आते हैं। बृहत्संहिता (९८५१) में आया है--'किन्हीं नक्षत्रों में करने के लिए जो कार्य व्यवस्थित हैं वे उनके देवताओं की तिथियों में किये जा सकते हैं और करणों तथा मुहूर्तों में भी ४. स्वातौ (श्वेते ?) मैत्रेथ माहेन्द्र गान्धर्वाभिजिति रौहिणे । तथा वैराजसावित्रे मुहूर्ते गृहमारभेत् ॥ मत्स्य० (२५३।८-९)। ५. शिवभुजगमित्रपिश्यवसुजलविश्वविरिञ्चिपंकजप्रभवाः। इन्द्राग्नीन्दुनिशाचरवरुणार्यमयोनयश्चाह्नि। रुद्राजाहिर्बुध्न्याः पूषा दलान्तकाग्निधातारः। इन्द्वदितिगुरुहरिरवित्वष्ट्रनिलाख्याः क्षणा रात्रौ॥ अह्नः पञ्चदशांशे रात्रश्चवं मुहर्त इति संज्ञा। बृहद्योगयात्रा (६।२-४)। और देखिए रत्नमाला (११-२)। यह द्रष्टव्य है कि रात्रि-सम्बन्धी मुहूर्त वायु ० (४३४४) को तालिका से मिलते हैं। और देखिए मुहूर्तमार्तण्ड (२१४), अलबरूनी (सचौ, जिल्द १, १० ३३८३४२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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