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________________ अध्याय १६ मुहूर्त 'मुहूर्त' शब्द दो बार ऋग्वेद में आया है।' शुतुद्रि (सतलज) एवं विपाशा (व्यास) के संगम पर आये हए विश्वामित्र ऋषि एवं नदियों के संवाद में इस प्रकार आया है-'मेरे वचनों (तुम्हारी स्तुति में कहे गये) के लिए, जिनके उपरान्त सोम का अर्पण होगा, तुम, जो एक व्यवस्थित नियम या क्रम में हो, थोड़ी देर के लिए रुक जाओ। दूसरे स्थान पर आया है-विभवशाली इन्द्र बहुत-सी मायाओं का प्रयोग करके अपने ही शरीर से अधिकतर बहुत-से रूप धारण करता है, क्योंकि वह सम्बोधित मन्त्रों से आहूत होकर व्यवस्थित नियम का पालन करता है, जो सोम का रस निश्चित या अनिश्चित कालों में पीता है, वह आकाश से थोड़ी देर के लिए तीन बार आता है। इन दोनों कथनों में 'मुहूर्त' शब्द का अर्थ है 'अल्प काल, थोड़े क्षण।' यही अर्थ शत० ब्रा० (११८। ३।१७ : तन् मुहूर्त धारयित्वा; २।३।२।५ : अथ प्रातः अनशित्वा मुहूर्तं समायामासित्वापि) एवं प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में आया है, यथा रघुवंश (५।५८)। ___ शत० बा० (१०।४।२।१८ एवं १२।३।२।६) में 'मुहूर्त' का दूसरा अर्थ भी है। ऐसा आया है कि दिन के १५ मुहूर्त एवं रात्रि के १५ मुहूर्त (अहोरात्र के ३० मुहूर्त) होते हैं और वर्ष में कुल १०८०० (३० x ३६०) मुहूर्त होते हैं। यहाँ मुहूर्त दिन का १५ वा भाग (अर्थात् सामान्य रूप से लगभग २ नाड़िका या घटिका) है। ऋ० (१०॥ १८९।३) में दिन-रात्रि के ३० भागों की ओर एक गूढ़ संकेत है, यथा 'त्रिंशद् घाम वि राजति वाक्पतंगाय धीयते', अर्थात् 'सूर्य की किरणों से दिन (एवं रात्रि) के ३० धाम प्रकाशित होते हैं', 'उस पक्षी (सूर्य) को यह स्तुति अर्पित हैं' (प्रतिवस्तोरह धुभिः) । त० ब्रा० (३।१०।१।१-३) में दिन एवं रात्रि के मुहूर्तों का उल्लेख है। वेदांगज्योतिष १. रमध्वं मे वचसे सोम्याय ऋतावरीरुप मुहुर्तमेवैः । ऋ० (३॥३३॥५)। यह निरुक्त (२०२५) द्वारा यों भ्याख्यायित है-उपरमध्वं मे वचसे सोम्याय सोमसम्पादिने ऋतावरीः ऋतवत्यः...मुहुर्तम् एवैः अयनः अवनर्वा । मुहूर्तः मुहुः ऋतुः। ऋतुः अतः गतिकर्मणः। मुहुः मूढः इव कालः। यहाँ ‘मुहूर्त' का अर्थ है 'अल्प समय के लिए, एक भण के लिए।' निरक्त ने इसकी व्युत्पत्ति मुहुः एवं 'ऋतु' (वह काल जोशीघ्र ही समाप्त हो जाता है) से की है। २. रूपं रूपं मघवा बोभवीति मायाः कृण्वानस्तन्वं परि स्वाम्। त्रिर्यद्दिवः परि मुहूर्तमागात्स्वमन्त्रैरनृतुप ऋतावा ॥ ऋ० (३॥५३॥८)। सवन (दिन में सोमरस निकालना) तीन हैं : प्रातःसवन, माध्यन्दिनसवन एवं तीयसवन। देखिए इस महाप्रन्थ का खण्ड २। ३. चित्रः, केतुः, प्रभान्, आभान्, संभान्, ज्योतिष्मान्, तेजस्वान्, आतपन्, तपन्, अभितपन्, रोचनः,रोचमानः, गोभनः, शोभमानः, कल्याणः, ये दिन के मुहुर्त हैं। रात्रि के ये हैं-दाता, प्रदाता, आनन्दः, मोदः, प्रमोदः, आवेशयन्, नवेशयन्, संवेशनः, संशान्तः शान्तः, आभवन, प्रभवन्, संभवन, संभूतः, भूतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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