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नक्षत्र-ज्योतिष, नौ ताराबलों का शुभाशुभत्व
२६५ हुआ अग्नि-सा है, इन्द्र देवता वाले तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्र को घेरे हुए है; एक निर्मम घूमकेतु चित्रा एवं स्वाती में स्थित होकर रोहिणी, सूर्य एवं चन्द्र को पीड़ित कर रहा है।'
मंगल के विषय में कतिपय कथन परस्पर-विरोधी हैं। उदाहरणार्थ, उद्योगपर्व (१४३।९) का कथन है-'ज्येष्ठा में वक्र मंगल मित्र देवता वाली अनुराधा को खोज रहा है, मानो मृत्यु ला रहा है'; भीष्मपर्व (३।१४) में आया है-'मंगल मघा में वक्र है, बृहस्पति श्रवण में है तथा शनि भग देवता वाले नक्षत्र (पूर्वाफाल्गुनी) को पीड़ित कर रहा है।' शनि के विषय में भी कथन हैं-'महाद्युतिमान् एवं तीक्ष्ण ग्रह शनि नक्षत्र (प्रजापति वाली, रोहिणी) को पीड़ित कर रहा है और लोगों को और पीड़ा देगा'; 'शनि रोहिणी को अतिक्रान्त करके खड़ा है। बृहस्पति एवं शनि विशाखा के पास हैं।'
महाभारत-कथनों में एक द्रष्टव्य बात यह है कि जहाँ वे सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों की स्थितियों को, उनके नक्षत्रों के सम्बन्ध में, बताते हैं, वे कहीं भी ग्रहों की स्थितियों को उनकी राशियों अथवा सप्ताह-दिनों (यथा मंगल, रवि आदि) के सम्बन्ध में नहीं बताते।
आथर्वण-ज्योतिष (१०११-११) ने नक्षत्र-ज्योतिष-सिद्धान्त को अन्य रूप से दर्शाया है। इसमें आया है-मनुष्य के जन्म से १० वाँ नक्षत्र कर्म कहलाता है; १९ वाँ गर्भाधानक; दूसरा, ११ वाँ एवं २० वाँ मिलकर सम्पत्कर (समृद्धि लाने वाला); तीसरा, १२ वाँ एवं २१वाँ मिलकर विपत्कर; चौथा, १३ वा एवं २२ वाँ मिलकर क्षेम ; ५ वाँ, १४ वाँ एवं २३ वाँ मिलकर प्रत्वर; छठा, १५ वाँ एवं २४ वाँ मिलकर साधक; ७ वाँ, १७ वएवं २५ वर्ष मिलकर नैधन; ८ वाँ, १७ वाँ एवं २६ वाँ मिलकर मैत्र; नवाँ, १८ वाँ एवं २७ वाँ मिलकर परममंत्र कहलाते हैं। ये ९ नक्षत्र-दल हैं (जिनमें प्रत्येक में ३ नक्षत्र हैं, कुल नक्षत्र २७ हैं)। प्रथम एवं दूसरे ९ संख्या में कम हैं। ये नाम पुनः १२ भावों से समन्वित होते हैं---जन्म (तनु या लग्न'), सम्पत् (धन, दूसरा भाव), कर्म (१० वाँ भाव), नैधन (८वा भाव, विनाश या मृत्यु), मंत्र (चौथा भाव, सुहृद्), क्षेम (११ वाँ भाव, आय या लाभ)। इसके आगे आथर्वण ज्योतिष ने इन ९ दलों में करने या न करने योग्य बातों पर विस्तार के साथ विचार किया है। आथर्वण ज्योतिष का काल लगभग द्वितीय या प्रथम शताब्दी ई० पू० है। विष्णुधर्मोत्तरपुराण अपने समय का एक विश्वकोश-सा है। इसका समय चौथी एवं छठी शताब्दी के बीच में रखा जा सकता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् में यज्ञ के लिए शुभ दिनों की व्यवस्था की ओर संकेत मिलता है। ब्राह्मणों एवं कल्पसूत्रों ने वैदिक यज्ञों के लिए शुभ नक्षत्रों एवं ऋतुओं की व्यवस्था की थी। गृह्य एवं धर्मसूत्र भी घरेलू कृत्यों के लिए कुछ हेर-फेर के साथ ब्राह्मणों, बृहदारण्यकोपनिषद् एवं कल्पसूत्रों के समान ही व्यवस्था देते हैं। उदाहरणार्थ, आश्व० (१।१३।१), आपस्तम्ब० (६।१४।९), बौधायन० (१।१०।१), पारस्कर० (१।१४) तथा अन्य गृह्यसूत्र व्यवस्था देते हैं कि पुसवन (जो कृत्य लड़का उत्पन्न होने के लिए होता है) का सम्पादन गर्भाधान के उपरान्त तीसरे मास में तिष्य नक्षत्र में या पुस्क नक्षत्र वाले चन्द्र के दिन किया जाना चाहिए। भारद्वाजगृह्य ने स्पष्ट रूप से पुंसवन के लिए तिष्य, हस्त अनुराधा, उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्र निर्धारित किये हैं (११२१)। चौल के लिए आपस्तम्बगृह्य (६।१६।३) ने जन्म के उपरान्त पुनर्वसु नक्षत्र ठीक माना है। पुनर्वसु का अर्थ ही है नया धन या नयी वृद्धि। कौशिकसूत्र ने पापनक्षत्र (४६।२५) एवं 'नक्षत्र (भाग्यशाली) का उल्लेख किया है (३५।२)। विवाह के लिए कतिपय विभिन्न व्यवस्थाएँ हैं। आप० गृ० के मत से शिशिर (माघ एवं फाल्गुन) के दो मासों एवं ग्रीष्म के आषाढ़ के अतिरिक्त सभी मास विवाह के लिए ठीक हैं। गोभिलगृह्य ने केवल शुभ नक्षत्र की चर्चा की है। पारस्कर का उल्लेख लम्बा है। बौधायन गृ० (१।१।१८-२२) ने घोषित किया है कि 'विवाह के लिए सभी मास उचित हैं, किन्तु कुछ ऋषि आषाढ़, माघ एवं फाल्गुन को वजित ठहराते हैं; विवाह के नक्षत्र हैं रोहिणी, मृगशीर्ष, उत्तरा
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