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नमत्रों के अभाशुभत्व का प्राचीन उल्लेख
२६३ एवं दिग्धनिकाय (१, पृ. ६८) में महाशील ने बौद्ध साधुओं के लिए ऐसी वृत्ति की भर्त्सना की है जो मनुष्य की आयु बताकर, भविष्यवाणियाँ (ग्रहण, तारा गिरना, विजय, हार आदि) करके प्राप्त की जाती है। किन्तु बुद्ध ने केवल नक्षत्राध्ययन वांछित माना है (सै० बु० ई०, जिल्द २०, पृ० २९२-२९४)। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने (९वाँ अधिकरण, चौथा अध्याय, पृ० ३५१, शामशास्त्री सम्पादन, १९१९) लाभविघ्नों में तिथि-नक्षत्र की शुभाशुभता को परिगणित किया है। इन उक्तियों से स्पष्ट है कि ईसा के कई शताब्दियों पूर्व वे लोग निन्दित समझे जाते थे जो फलित ज्योतिष द्वारा जीविका चलाते थे।
कौटिल्य ने फलित ज्योतिष की अति निर्भरता की निन्दा की है न कि उसके ज्ञान की। उसने राजा के पुरोहित के लिए जिन गुणों को आवश्यक माना है उनमें नक्षत्रविद्या का गुण भी सम्मिलित है (अर्थशास्त्र ११९, पृ० १५-१६)। यही बात कौटिल्य के कई सौ वर्ष उपरान्त याज्ञवल्क्य ने भी कही है-'पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम् । दण्डनीत्यां च कुशलमथवींगिरसे तथा॥' जिसका अर्थ है-राजा को ऐसा पुरोहित नियुक्त करना चाहिए जो दैवज्ञ हो (फलित ज्योतिष-विशारद हो), शाखानुशासित बातों से शासन-शास्त्र (दण्डनीति) में प्रवीण हो और अथर्ववेद के ऐन्द्रजालिक कृत्यों में पारंगत भी हो (याज्ञ० १।३।१३)।'
नक्षत्रों पर आधारित फलित ज्योतिष के विकास के विषय में कुछ ऐसे वचन भी प्राप्त होते हैं जो कुछ अंशों में पश्चात्कालीन कुण्डली-पद्धति के 'गृहों के समनुरूप हैं। इसके विषय में संकेत मिलते हैं, किन्तु वे अति प्राचीन नहीं हैं। वैखानसस्मार्तसूत्र (४।१४) में जन्म, कर्म, सांघातिक, सामुदायिक एवं वैनाशिक नामक नक्षत्रों का उल्लेख है और इनकी व्याख्या वराह ने (योगयात्रा में)एवं विष्णुधर्मोत्तरपुराण ने की है। योगयात्रा (९।१-३ एवं १०) में आया है'जिस नक्षत्र में व्यक्ति उत्पन्न होता है उसे आद्य (प्रथम) कहते हैं, आद्य से दसवाँ कर्म कहा जाता है, आद्य से सोलहवाँ नक्षत्र सांघातिक कहा जाता है (सांघातिक का अर्थ है एक दल या व्यक्ति-समूह), आद्य से अठारहवाँ समुदाय (संग्रह या समूह), २३वाँ वैनाशिक (मृत्यु या नाश से सम्बन्धित), २५वाँ मानस कहलाता है, इस प्रकार सभी व्यक्ति छ: नक्षत्रों (पहले, १० वें, १६ वें, १८ वें, २३ वें एवं २५ वें) से सम्बन्धित हैं। लोगों का कथन है कि राजा नौ नक्षत्रों से सम्बन्धित है, तीन अतिरिक्त वे हैं जो राजा की जाति, देश एवं उस नक्षत्र से सम्बन्धित हैं जिसमें राज्याभिषेक हुआ रहता है।' योगयात्रा एवं विष्णुधर्मोत्तर० (११७८।१४-१६) में आगे आया है-'जब जन्म-नक्षत्र किसी बुरे नक्षत्र या उसके स्वरूप से प्रभावित हो जाता है तो व्याधि, धन-क्षय एवं झगड़े होते हैं; जब कर्म-नक्षत्र (इस प्रकार) प्रभावित होता है तो संकल्प में असफलता मिलती है; जब सांघातिक (१६वाँ) प्रभावित होता है तो धोखा मिलता है ; जब सामुदायिक (१८वें) की ऐसी गति होती है तो एकत्र धन का क्षय होता है; जब वैनाशिक (२३वें) के साथ ऐसा होता है तो वांछित वस्तुओं का नाश होता है; जब मानस (२५वाँ) प्रभावित होता है तो चिन्ताकुलता एवं अप्रसन्नता का उदय होता है। जब सभी (छः) नक्षत्रों पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता तो व्यक्ति स्वस्थ होता है, आनन्द पाता है, उसका शरीर भली-भाँति पोषित होता है और उसे धन प्राप है। किन्तु सभी नक्षत्र (छ:) प्रभावित हो जाते हैं तो व्यक्ति का नाश होता है और तीन के साथ छः नक्षत्र प्रभावित रहते हैं तो राजा की भी गति वैसी होती है। यदि अभिषेक नक्षत्र प्रभावित हो तो राज्य की हानि होगी, यदि
१८. लाभविघ्नः कामः क्रोषः साध्वसं मंगलतिथिनक्षत्रेष्टि (ष्ट ?) त्वमिति । 'नक्षत्रमतिपच्छन्तं बालमधोतिवर्तते। अर्यो झर्यस्य नक्षत्रं किं करिष्यन्ति तारकाः ॥ साधना प्राप्नुवन्त्यर्यान् नरा यत्मशतैरपि। अर्थराः प्रबन्यते गणाः प्रवियर्वरिष।' (अर्थशास्त्र, ९, ४, पृ० ३५१, शामशास्त्री, १९१९)।
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