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धर्मशास्त्र का इतिहास इससे प्रकट है कि कुछ नक्षत्र (तै० ब्रा० ११५।२।१ या ३।१।२१८) तो शुभ एवं कुछ अशुभ (यथा ज्येष्ठा, मूल) थे। बृहदारण्यकोपनिषद् (६॥३॥१) से प्रकट है कि कुछ नक्षत्र पुंस्क (पुरुषवाची या पुल्लिग) थे--"यदि कोई व्यक्ति ऐसी कामना करे 'मैं महत्ता को प्राप्त करूँ तो उसे उत्तरायण में किसी शुक्ल पक्ष में बारह दिनों तक केवल दूध का भोजन करना चाहिए और किसी पुंस्क नक्षत्र में किसी पुण्य दिन में अग्नि में आहुति देनी चाहिए।"
उपर्युक्त उदाहरणों से व्यक्त है कि आरम्भिक वैदिक कालों में भविष्यवाणियाँ नक्षत्रों के आधार पर की जाती थीं, और जन्म का कोई नक्षत्र शुभ या अशुभ माना जाता था। पाणिनि के समय में, पुष्य नक्षत्र शुभ माना जाता था, उसे उन्होंने 'सिध्य' नाम से पुकारा है। किन्तु इन प्रारम्भिक युगों में कोई ऐसे नियम नहीं बन पाये थे जिनसे ग्रहों का किसी नक्षत्र में प्रभाव जाना जा सके और न कुण्डलियाँ ही बनती थीं, जिनमें ग्रहों, नक्षत्रों एवं राशियों के घर आदि बने हों। उन दिनों प्रधानतया केवल नक्षत्रों, दिनों एवं भौतिक लक्षणों तथा शारीरिक लक्षणों तक ही भविष्यवाणियाँ सीमित थीं। देखिए पाणिनि ११४।३९ (राधीक्ष्योर्यस्य विप्रश्नः), ४।३।७३ (अगृगयनादिभ्यः) एवं काशिका (पाणिनि ३।२।५३) जिसमें जायाध्नस्तिलकालकः, पतिघ्नी पाणिरेखा (हथेली की रेखा) के उदाहरण हैं।
ऋग्वेद (२।४२।१ एवं ३; निरुक्त' ९।४) में कुछ ऐसे मन्त्र हैं जो कपिजल-जैसे पक्षियों की बोलियों से घटने वाली शुभ या अशुभ घटनाओं की ओर संकेत करते हैं। बृहत्संहिता (९८।१४) ने प्रतिपादित किया है कि यात्रा में संलग्न व्यक्ति को पक्षिगण यह बताते हैं कि पूर्व जन्मों में उसके कर्म अच्छे थे या बरे और उनके फल क्या हैं। पशओंएवं पक्षियों के परिदर्शन, उडान, स्वर से सम्बन्ध रखने वाले शकुनों के विषय में वराहमिहिर के योगयात्रा ग्रन्थ
में तथा अद्भुतसागर (पृ० ५६९-५८२) में पर्याप्त विस्तार पाया जाता है। योगयात्रा (१४।२० एवं २६) में • आया है कि यात्रा करते समय कुछ पक्षी या पशु व्यक्ति की दाहिनी दिशा या दक्षिण दिशा में हों तो शुभ होता है और जब चाष पक्षी अपने मुख में कुछ लेकर व्यक्ति की दाहिनी ओर उड़ जाता है तो कल्याण होता है।
शुभाशुभ दिनों एवं नक्षत्रों से सम्बन्धित भावनाओं का परिणाम यह हुआ कि लोग निरीक्षणों में व्यस्त हो गये तथा निर्णय देने लगे, जिसके फलस्वरूप 'नक्षत्र विद्या' का उदय हुआ। छान्दोग्योपनिषद् (७।१।२ एवं ७.७१) में इस विद्या की चर्चा है। जब नारद ज्ञान के लिए महान् आचार्य सनत्कुमार के पास गये तो आचार्य ने उनसे पूछा कि वे क्या-क्या पढ़ चुके हैं। इस पर नारद ने विद्याओं की एक लम्बी सूची सुनायी जिसमें चार वेदों, इतिहास-पुराण आदि के साथ नक्षत्र-विद्या (ज्योतिः-शास्त्र एवं फलित ज्योतिष) का भी उल्लेख है। आजकल की भांति उन दिनों भी नक्षत्र-निरीक्षकों, फलितज्योतिषियों आदि के विषय में विचित्र धारणाएँ प्रचलित थीं। बहुधा लोग ऐसे लोगों की प्रवंचनाओं में फँस जाते थे और निराशा के नद में डूबने-उतराने लगते थे। देखिए ते० प्रा० (३।४।४) एवं वाज० सं० (३०।१० एवं २०) जहाँ एक 'नक्षत्रदर्श' (नक्षत्रनिरीक्षक) प्रज्ञान के समक्ष अभियुक्त के रूप में लाया गया है और 'गणक' (नक्षत्रों एवं ग्रहों की गतियों की गणना करने वाला) ग्राम के मुखिया के साथ जेलजन्तुओं के बीच फेंक दिया गया है। मनु ने भी नक्षत्र विद्या से जीविका चलाने वाले को उन ब्राह्मणों के साथ उल्लिखित किया है जिन्हें देव-कृत्य एवं श्राद्ध में न बुलाये जाने की व्यवस्था है (३।१६२)। मनु (६।५०) ने साधुओं को उत्पातों (भूचाल आदि), शारीरिक गतियों (आँख फड़कना आदि) या नक्षत्रविद्या या अंगविद्या (हाथ देखना आदि) के द्वारा जीविका चलाने की मनाही की है। हारीत एवं शंख-लिखित के प्राचीन सूत्रों ने घोषित किया है कि नक्षत्रजीवियों एवं नक्षत्रादेशवृत्तियों (जो नक्षत्रों का संदेश कहकर जीविका चलाते हैं) को अन्य ब्राह्मणों की पंक्ति में बैठने की अयोग्यता प्राप्त है (कृत्य कल्पतरु, श्राद्ध, पृ० ८८ में उद्धृत)। यही बात सुमन्तु ने (कृ० क० त०, पृ० ९१) 'मूल्यसांवत्सरिक' (जो धन के लिए फलित ज्योतिष का उपयोग करता है) के विषय में कही है। देखिए विष्णुधर्मसूत्र (४२।७) । तेविज्जसुत्त (सक्रेड बुक आव दि ईस्ट, मिल्द ११, पृ० १९६-१९८
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