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________________ नक्षत्रों के शुभानुमत्वका प्राचीन उल्लेख २६१ विकास है। स्वप्नों, पक्षियों की उड़ानों एवं स्वरों, भेड़ों के यकृत (कलेजे) पर पड़े संकेतों (जो बेबिलोन या रोम में देव-यज्ञों के समय काटे जाते थे) से भी कुशल दैवज्ञ लोग भविष्यवाणियां किया करते थे। ऋग्वेद में भी शुभ दिनों की चर्चा है, यथा सुदिनत्वे अह्नाम् (३।८।५, ३।२३।४, ७।८८१४ एवं १०७०।१), सुदिनत्वम हाम् (२।२१।६), सुदिनेष्व हाम (४।३७।१)। कुछ ऐसी उक्तियाँ भी हैं जहां यज्ञ आदि के शुभ दिनों के लिए आकांक्षा प्रकट की गयी हैं (ऋ० ४।४।७, ५।६०।५, ७।११।२,७।१८।२, १३१२४१२ एवं १०॥३९।१२)। ऋग्वेद-काल में अघा (मघा) में गौए दूलह के घर भेजी जाती थीं और विवाहोपरान्त दुलहिन अर्जुनी (या फाल्गुनी) नक्षत्र में रथ में बैठकर अपने पति के घर जाती थी। इसी के आधार पर विवाह के लिए बौधायनगृह्यसूत्र में रोहिणी, मृगशीर्ष, उत्तराफाल्गुनी एवं स्वाती का उल्लेख हुआ है। काठक सं० (८१), शतपथ ब्रा० (२।१।२), तै० ब्रा० (१।२।६-७) के अनुसार अग्न्याधेय (पवित्र अग्नि की स्थापना) का सम्पादन सात नक्षत्रों में किसी दिन या वसन्त, ग्रीष्म या शरद् ऋतु में कर्ता के वर्ण के अनुसार होता था, किन्तु सोमयज्ञ के लिए अपवाद भी रखा गया था। ऐसा आया है कि सोमयज्ञ का अभिकांक्षी व्यक्ति किसी भी ऋतु में अग्न्याधेय कर सकता था और उससे उसे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती थी। प्राचीन वैदिक उक्तियों में प्राकृतिक (भौतिक) फलित ज्योतिष एवं व्यक्तिपरक फलित ज्योतिष का अन्तर प्रकट नहीं हो पाता। उदाहरणार्थ, तै० सं० (मंत्रेण कृषन्ते, १।८।४।२) में प्रतिपादित है कि अनुराधा में, जिसके देवता मित्र हैं, लोगों को खेत में हल चलाना चाहिए। पारस्करगृह्य० (२।१३) में आया है कि लोगों को (अपने खेत में) लांगल (हल) पुण्याह (शुभ दिन) में या इन्द्र देवता (वर्षा इन्द्र के हाथ में रहती है) वाले ज्येष्ठा (नक्षत्र) में रखना चाहिए (पुण्याहे लांगल योजनं ज्येष्ठ्या वेन्द्रदेवत्यम्)। वहीं यह भी आया है कि यदि व्यक्ति यह कामना करता है कि उसकी पुत्री अपने पति की प्रिया हो तो उसे चाहिए कि वह अपनी पुत्री का विवाह निष्ट्या (स्वाती) नक्षत्र में करे; यदि वह ऐसा करता है तो उसकी पुत्री पतिप्रिया हो जाती है और अपने पिता के घर नहीं लौट कर आती (त० ब्रा० २।१३)। कृत्तिका से लेकर विशाखा तक के नक्षत्र देवनक्षत्र कहे गये हैं और उनमें सम्पादित कृत्य पुण्याह (पवित्र या शुभ दिन) पर सम्पादित माने जाते हैं। अथर्ववेद (६।११०।२-३) के काल में ऐसा विश्वास था कि ज्येष्ठा या वित् (मूल नक्षत्र) में उत्पन्न बच्चा या किसी व्याघ्र-सदृश नक्षत्र (भयंकर नक्षत्र) में उत्पन्न बच्चा या तो स्वयं मर जाता है या अपने माता-पिता की मृत्यु का कारण बनता है।'' १५. पोषं रयीणामरिष्टि तनूनां स्वादनानं वाचः सुदिनत्वमह्नाम्। ऋ० २२२११६; जातो जायते सुदिनत्वे अह्नां समर्थ आ विदथे वर्षमानः । ऋ० ३।८।५; नि त्वा दधे वर आ पृथिव्या इलायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम् । दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि ॥ ऋ० ३।२३।४। १६. यूनानी लोग क्षयोन्मुख चन्द्र को अशुभ एवं बढ़ते चन्द्र को शुभ मानते थे। हेसिओडी पद्धति (जो ऋग्वेव से कई शताम्बियों पश्चात् की है) भी शुभाशुभ दिनों की चर्चा करती है, यद्यपि हेसिओड यह स्वीकार करता है कि इसमें मतैक्य नहीं है। हेसिओड ने मास की पांचवीं तिथि को विशिष्ट रूप से वजित माना है। अपोलो के लिए यूनान में सातवीं तिथि पवित्र थी और बेबिलोन में भी सातवीं पवित्र तिथि थी। १७. ज्येष्ठघ्न्यां जातो विचूतोर्यमस्य मूलबर्हणात्परिपाटेनम् । अत्येनं नेषद् दुरितानि विश्वा दीर्घायुत्वाय शतशारवाय ॥ व्याघ्रयजनिष्ट वीरो नक्षत्रजा जायमान सुवीरः। स मा बधीत्पितरं वर्षमानो मा मातरं प्रमिनीनमित्रीम् ।। अथर्ववेद (६।११०।२-३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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