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________________ २६० धर्मशास्त्र का इतिहास थिबो (ग्रुण्ड्सि ,पृ.० ४२) का कथन है कि 'पुलिश' शब्द निश्चित रूप से अभारतीय है। यह अति आश्चर्य का विषय है कि पश्चिमी विद्वान् लेखक किसी शब्द की अभारतीयता को सिद्ध करने में इतने निश्चयात्मक हो उठते हैं। संस्कृत में कुछ अति प्राचीन शब्द ये हैं-पुलस्त्य, पुलह," पौलस्त्य (कुबेर), जिनमें 'पुलिश' शब्द के कई तत्त्व समाहित हैं। आज भी ऐसे नाम आते हैं, यथा नवाबसिंह। सिद्धान्तों को पैतामह एवं पौलिश इसलिए कहा गया है कि वे पितामह एवं पुलिश द्वारा प्रणीत हुए थे। थिबो का कथन है कि अलबरूनी ने 'पुलिश' को 'पौलुस' नामक यूनानी लेखक माना है। किन्तु भारतीय एवं यूनानी लेखकों के नामों से परिचित होते हुए भी अलबरूनी आज के पाश्चात्य लेखकों के समान भूल कर सकता है। वेबर, जो अपने अध्ययन एवं परिश्रम के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, ऐसी भूल करते हैं तो औरों की तो बात ही दूसरी है। यह बात अभिज्ञानशाकुन्तल में पाये जाने वाले उस उल्लेख के सदृश है, जहाँ शकुन्तला के पुत्र के नौकर ने यह कहा है कि लड़का नामों के सादृश्य से भ्रम में पड़ गया। स्वयं थिबो ने स्वीकार किया है कि यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि पौलिश सिद्धान्त यूनान के फलित ज्योतिष के ज्ञाता पौलुस (या पौलस) के ग्रन्थ से सम्बन्धित है। पौलिश-सिद्धान्त अपेक्षाकृत केवल ज्योतिःशास्त्र की बातों से सम्बन्धित है। हमने ऊपर देख लिया है कि पितामह-सिद्धान्त लगभग ८० ई० में प्रणीत हुआ था। अतः उस सिद्धान्त ने सन् १५० ई० में प्रणीत टाल्मी से कुछ भी उधार नहीं लिया। अब हम इस विषय पर इतना ही कह देना पर्याप्त समझते हैं कि जिन भारतीयों ने संस्कृत भाषा के तत्त्वों को इतने परिमार्जित एवं वैज्ञानिक ढंग से माँजा एवं परिशुद्ध किया (पाणिनि), जिन्होंने 'योग' जैसे मानस अनुशासन की व्यवस्था की, अक्षरों के उच्चारणसम्बन्धी मुखांगों पर प्रकाश डाला, जिन्होंने प्रातिशाख्यों एवं शाखाओं के ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिन्होंने सर्वप्रथम बीजगणित के सिद्धान्तों का नियमन किया, जिन्होंने विश्व को दशमलव का ज्ञान दिया, जिसके आधार पर आज का गणित आधारित है, जिन्होंने अपने शून्य के ज्ञान को अरबों द्वारा यूरोप में भेजा, आदि-आदि, वे भारतीय किसी अन्य पिछड़े देश से ज्ञान-ऋण कैसे ले सकते हैं ? । हमने वैदिक काल के ज्योतिःशास्त्र-सम्बन्धी वचनों का अध्ययन किया है। अब हम वैदिक वचनों के अन्तर्गत फलित ज्योतिष-सम्बन्धी ज्ञान का विवेचन करेंगे। मानव-मन भविष्य-ज्ञान के लिए अति उत्सुक रहता है और कुछ दिनों, कालों एवं परिणामों को शुभ या अशुभ मानने को सन्नद्ध रहता है। अति प्राचीन काल में लोगों द्वारा भविष्य की जानकारी के लिए बहुत से साधनों का आश्रय लिया जाता था। सूर्य, चन्द्र एवं ग्रहों की जो स्थिति जन्म के समय जैसी होती है, उसके आधार पर जो भविष्यवाणी की जाती है वही फलित ज्योतिष का विषय है। ऐसी सामान्य धारणा है। किन्तु अति प्राचीन काल में ऐसी धारणा कम-से-कम इसी अर्थ में नहीं थी। असीरिया में आकाश-स्थितियों एवं ग्रहों की दशाओं के आधार पर अन्न-उत्पत्ति, बाढ़ों, अन्धड़ों, आक्रमणों एवं अन्य उपद्रवों के विषय में फलित-ज्योतिष द्वारा भविष्यवाणी की जाती थी। आकाश के नक्षत्रों एवं पृथिवी की घटनाओं का सम्बन्ध देवों के विचारों से समझा जाता था और आसन्न घटनाएँ उनसे परिलक्षित की जाती थीं। हम इसे भौतिक फलित ज्योतिष कह सकते हैं (नैच्यूरल एस्ट्रालाजी), पंचांग-सम्बन्धी फलित ज्योतिष पश्चात्कालीन १४. 'पुलस्त्य' शब्द अपरार्क द्वारा (१२वीं शती का पूर्वार्ध) लगभग बारह बार और स्मृतिचन्द्रिका (१३वीं शती का पूर्वार्ध) द्वारा लगभग तीस बार प्रयुक्त हुआ है। इन स्थानों पर वह एक स्मृतिकार कहा गया है। स्मृतिचन्द्रिका ने 'पुलह' को स्मृतिकार कहा है। मनु (१।३५) ने 'पुलस्त्य' एवं 'पुलह' को प्रजापति के दस पुत्रों में परिगणित किया है। पुलस्त्य एवं पुलह सप्तर्षियों में दो ऋषि हैं (बृहत्संहिता, १३।११)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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