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भारतीय ज्योतिर्गणित की मौलिकता
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वाले शब्द ही प्राप्त होते, जिसने कि वराहमिहिर के फलित ज्योतिष में । पञ्चसिद्धान्तिका के विषयों में कहीं भी यूनानी शब्द का मूल प्रकट नहीं होता । वेबर आदि ने वराहमिहिर द्वारा प्रयुक्त 'रोमक' एवं 'पौलिश' पर अधिक निर्भरता व्यक्त की है। यदि रोमक शब्द अलेक्जेंड्रिया का है तो इससे यह नहीं सिद्ध होता कि इन सिद्धान्तों पर यूनानी प्रभाव है। मध्यकाल का कोई ग्रन्थ या पंचांग प्रमुख रूप से रोमक सिद्धान्त पर आधारित था, इस विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता।" वर्ष का विस्तार है ३६५ दिन ५ घण्टे ५५ मिनट एवं १२ सेकण्ड, जो हिप्पार्कस की गणना से मिलता है और जिसे टॉल्मी ने मान लिया है (थिबो, गुण्ड्रिस, पृ० ४२ ) । वराह द्वारा अहर्गण के लिए व्यवस्थित नियम (रोमक सिद्धान्त के अनुसार ) यवनपुर (उज्जयिनी नहीं) के मध्याह्न के लिए ठीक उतरता है । पश्चिम के विद्वानों ने इस बात पर कभी नहीं सोचा कि रोमक- सिद्धान्त जो संस्कृत में था, किसी ऐसे यूनानी द्वारा, अधिक सम्भव है, प्रणीत हो सकता है, जो भारत निवासी रहा हो तथा संस्कृत एवं यूनानी दोनों भाषाओं या अलेक्जेंड्रिया के ज्योतिःशास्त्र का ज्ञाता रहा हो, तथा टाल्मी और यहाँ तक कि हिप्पार्कस का पूर्वकालीन रहा हो, तथा इसी से वराह ने अपने करण में उसका निष्कर्ष दिया हो, क्योंकि उन्होंने अपने प्रसिद्ध फलित ज्योतिष ग्रन्थ 'बृहत्संहिता' में यवन - दृष्टिकोण का उल्लेख किया है और अधिकतर अपना मतभेद प्रकट किया है। इतना ही नहीं, वराह यूनानी फलित ज्योतिष के प्रति उदार भी थे-- ' यवन, सचमुच म्लेच्छ हैं और यह शास्त्र उनमें सम्यक् रूप से व्यवस्थित है; यवन भी पूजित हैं, मानो वे भी ऋषि हों । तव फलित ज्योतिष के पण्डित किसी ब्राह्मण के विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् वह ब्राह्मण तो उनसे भी अधिक पूजित होगा) । यहाँ पर 'शास्त्र' शब्द 'होरा - शास्त्र' का द्योतक है। किन्तु वराह ने अन्यत्र ऐसी प्रशंसा यूनानियों के विषय में नहीं की है, उनके ज्योतिःशास्त्र एवं गणित की योग्यता की चर्चा नहीं की है। उन्होंने यूनानियों को ज्योतिःशास्त्र के विषय में कोई मान्यता नहीं दी, और न उनके सिद्धान्तों का कोई आधार माना । उन्होंने अपने फलित ज्योतिष-सम्बन्धी ग्रन्थ में प्रयुक्त शब्दों की सन्निधि में कोई ग्रीक ( यूनानी) शब्द नहीं प्रयुक्त किया है।
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१२. केवल यही बात नहीं थी कि रोमक सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया गया, प्रत्युत बहुत पहले छठी शताब्दी में ब्रह्मगुप्त (५९८ ई० में उत्पन्न ) ने इसकी भर्त्सना की और इसका स्मृतियों में समावेश करना अमान्य ठहरा दिया : 'युगमन्वन्तरकल्पाः कालपरिच्छेदकाः स्मृतावुक्ताः । यस्मान्न रोमके ते स्मृतिबाह्यो रोमकस्तस्मात् ॥' ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त (१।१३ ) ।
१३. म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद् द्विजः ॥ बृहत्संहिता ( २।१५, कर्न का सम्पादन ) । अलबरूनी (सचौ, जिल्द १, पृ० २३) ने भी इस पद्य की ओर संकेत किया है। पाणिनि (४|१|४९) में बारह शब्द ( इन्द्रवरुण यवनमातुलाचार्याणामानुक्) आये हैं जिनके अधिकांश के साथ पत्नी के अर्थ में 'आनी' प्रत्यय लगा है। 'यवन' शब्द 'इओनिया' (ionia) का स्पष्ट आवर्तन है, जो एशिया माइनर के तट पर २०-३० मील चौड़ा पहाड़ी भूमि खण्ड है। पाणिनि ने अलेक्जेण्डर तथा उसके साथ या बाद के आने वाले यूनानियों को चर्चा नहीं की है, जैसा कि पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं । ई० पू० छठी शताब्दी में माइलेटस यूनान का सबसे समृद्ध नगर था । पाणिनि के काल में यवनानी शब्द का अर्थ था यवन की पत्नी, किन्तु कात्यायन के काल में यह शब्द यूनानी लिपि का द्योतक था। आगे चलकर सभी ग्रीसवासी इओ निया के रहने वाले लोगों के समान 'यवन' कहे जाने लगे। देखिए विल ड्यूरीं कृत 'लाइफ आव ग्रीस' (१९३९), पू० १३४ एवं सार्टोन कृत 'ए हिस्ट्री आव् साइंस', पू० १६२ ।
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