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________________ भारतीय ज्योतिर्गणित को मौलिकता २५७ यहाँ पर जान-बूझकर वैदिक काल के ज्योतिष-ज्ञान का विवरण थोड़ा लम्बा कर दिया गया है। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने, जिन्होंने प्राचीन एवं मध्यकालिक भारत की ज्योतिष-सम्बन्धी उपलब्धियों पर लिखा है, भारतीय ज्योतिःशास्त्र तथा सामान्य रूप से सभी भारतीय पक्षों पर अपमानजनक एवं तिरस्कारपूर्ण उक्तियाँ कही हैं। यहाँ कुछ ही उदाहरण दिये जा रहे हैं। थिबो (ग्रुण्डिस, पृ.० ३) ने कृपापूर्वक यह उद्घोषित किया है कि यूनानी प्रभाव के पूर्व का भारतीय ज्ञान न-कुछ सा है और जो कुछ है वह मात्र प्रारम्भिक अवस्था का है। ह्विटनी (जे० ए० ओ० एस०, जिल्द ६,पृ.० ४७१) महोदय ने भी अपने क्षुद्र ज्ञान का परिचय दिया है। वे अमेरिका के संस्कृतज्ञ पण्डित रहे हैं, किन्तु उन्होंने हिन्दू-मस्तिष्क की उपलब्धियों को गौण स्थान दिया है। उनके सहकर्मी श्री बर्गेस तो और आगे बढ़ गये हैं। यह है पश्चिमी विद्वानों के अल्प ज्ञान, हठवादिता, विरोधपक्षता आदि का रूप। किन्तु क्या हम ह्विटनी महोदय को उन्हीं के शब्दों में उत्तर नहीं दे सकते हैं ? टाल्मी के उपरान्त लगभग १४०० वर्षों तक ह्विटनी महोदय तथा अन्य अहंकारी पाश्चात्य लेखकों के पूर्वज लोगों ने ज्योतिष के क्षेत्र में कोई भी नवीन ज्ञान नहीं जोड़ा और अबोध रूप में गुलाम के समान टाल्मी के एल्मागेस्ट पर ही टिके रहे और यूरोपीय अन्धकार-युग के प्रणेता बने रहे। उस लूथर ने भी, जिसने पोप के अधिकार का खुलकर विरोध किया था, कोपर्निकस को मूर्ख कहा और उसे ज्योतिःशास्त्र को उलट देने का अपराधी माना, बाइबिल की निर्भरता स्थापित की और घोषित किया कि जोशुआ ने सूर्य को, न कि पृथिवी को, स्थिर रहने का आदेश दिया (जोशुआ, १०।१२)। यह उलटी गति है, जो कुछ बाइबिल में है वही सत्य है ! हाय रे बुद्धि और उसका चमत्कार ! ह्विटनी आदि तथाकथित विद्वानों को लूथर के समान कथनों एवं अपने अल्प ज्ञान, हठवादिता आदि पर लज्जा आनी चाहिए थी, इत्यलम्। प्रस्तुत लेखक सभी पाश्चात्य लेखकों से, जो भारतीयता-शास्त्र में अभिरुचि रखते हैं तथा कुछ यूनानी लेखकों की उपलब्धियों के चकाचौंध में पड़े हुए हैं, निवेदन करता है कि वे सर नार्मन लाकीअर (डान आव ऐस्ट्रॉनामी, १८९४ ई.) के निम्नोक्त शब्दों को पढ़ें-'ऐनेक्ज़िमैण्डर ने कहा कि पृथिवी की आकृति वर्तुंलाकार थी और उन दिनों के प्रत्येक ज्ञात स्थान उस वर्तुल रूप की चपटी सीमा पर अवस्थित थे; और प्लेटो ने, इस आधार पर कि ज्यामिति का अतिपूर्ण रूप घन है, कल्पना की कि पृथिवी घनाकार है, और यूनानियों द्वारा ज्ञात पृथिवी इसकी ऊपरी सतह पर थी। इन विषयों में अतिर्पित यूनानी मस्तिष्क कुछ भी उन्नति नहीं कर सका था और अपने पूर्वज वैदिक याजकों से बहुत पीछे था (१०८)।' यदि ज्ञान के दो-एक क्षेत्रों में यूनानी आगे बढ़े तो विश्व के अन्य भागों के कुछ लोग अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों में बहुत आगे थे। प्रस्तुत लेखक उनसे यह भी निवेदन करता है कि वे सार्टन महोदय की लिखित 'ए हिस्ट्री आव साइंस' की भूमिका सूर्य को विद्ध कर डाला था, दिवाकोयं से नष्ट कर दिया, और वर्ष का आत्मा विषुव है तथा इसके दोनों पक्ष चतुर्दिक् चलते रहते हैं। देखिए इस महाग्रन्थ का खण्ड २, जहाँ 'गवामयन', सांवत्सरिक सत्र एवं विषुव दिन की अवस्थिति के विषय में लिखा हुआ है। यह नहीं भूलना चाहिए कि विषुव केवल एक ज्योतिःशास्त्रीय अवधि है और वह वैज्ञानिक यन्त्रों के बिना ठीक से निरीक्षित नहीं हो सकती। यज्ञिय वर्ष में केवल ३६० दिन होते हैं तथा विषुव नामक दिन मध्य में होता है तो इस प्रकार दिनों को कुल संख्या ३६१ हुई, किन्तु सौर वर्ष में लगभग ३६५ दिन होते हैं तो विषुव के समय रात एवं दिन की बराबरी केवल लगभग होगी। ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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