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धर्मशास्त्र का इतिहास एवं प्रो० जैकोबी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कृत्तिका से आरम्भ नक्षत्र-श्रेणी प्राचीनतम व्यवस्था नहीं थी, प्रत्युत भारतीयों के पास इससे भी प्राचीन व्यवस्था थी, जिसमें महाविषुव के काल से आरम्भ कर मृगशीर्ष नक्षत्र से नक्षत्र-श्रेणी की गणना होती थी। विशेष अध्ययन के लिए देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी की जिल्दें (२३, पृ० १५४-१५९; पृ० २३८-२४९; ३६१-३६९; जिल्द ४८, पृ० ९५-९७) जहाँ बिओ, वेबर, बुहलर, थिबो आदि की मान्यताएँ व्यक्त हैं। यास्क ने नक्षत्र की व्युत्पत्ति 'नश्' (जाना) धातु से की है, शतपथ ब्रा० (२।१।२।१७-१८) एवं तै० ब्रा० (२।७।१८) ने इसकी व्युत्पत्ति 'न+क्षत्र' से की है और पाणिनि (६।३।७५) ने इसे स्वीकार किया है। यह नक्षत्र' शब्द ऋ० (६।६७।६) में सूर्य के लिए भी प्रयुक्त है। तै० ब्रा० (१।५।२।१) ने बताया है कि किस प्रकार किसी धार्मिक कृत्य के लिए नक्षत्र को जानना चाहिए; व्यक्ति को चाहिए कि वह सूर्योदय के पूर्व एवं उसके समय, जब सूर्य की प्रथम किरण उतरती हैं, आकाश को देखे जहाँ नक्षत्र परिदर्शित होता है, जब सूर्य प्रकट होता है तो नक्षत्र उसके पश्चिम में रहता है, उसी समय उसे, जो कुछ करना है, करना चाहिए। ऐसा आया है कि ऋषि मत्स्य ने इसी विधि से 'यज्ञेषु' एवं 'शतधुम्न' की महत्ता स्थापित की थी (त० ब्रा० १।५।२।१)।
ऐतरेयब्राह्मण (३।४४) के जैसे आरम्भिक काल में वैदिक भारतीय इस निष्कर्ष पर पहुँच गये
यं एक है और वह कभा अस्त नहीं होता'-'यह सूर्य वास्तव में न तो अस्त होता है और न उदित। जब लोग ऐसा सोचते हैं कि वह (सूर्य) अस्त होता है तो यह होता है कि वह दिन के अन्त में पहुँचता है, उलटा हो जाता है, नीचे रात्रि बनाता है और ऊपर दिन । जब लोग ऐसा सोचते हैं कि प्रातःकाल उदित होता है, तो उसका अर्थ है कि वह रात्रि क अन्तिम रूप में पहुंच कर उलटा हो जाता है, नीचे दिन बनाता है और ऊपर रात्रि। वह वास्तव में कभी भी नहीं अस्त होता है।' यह 'सूर्यप्रज्ञप्ति' में उल्लिखित जैन सिद्धान्त के विरोध में जाने वाली एक हृदय ग्राह। उवित है, क्योकि जैन सिद्धान्त के अनुसार दो सूर्य एवं दो चन्द्र है। ग्रीस (यूनान) में हिराविलटस (ई० पू०६००) ने भी भ्रामक उक्ति कही थी कि एक नया सूर्य प्रति दिन जन्म लेता है और मरता है (इयेस्लर, पृ० ४२)।
ब्राह्मण काल में भारतीयों ने विषुव-काल का ज्ञान कर लिया था (विषुव को यज्ञिय वर्ष के मध्य में रखा गया था, उस दिन रात-दिन बराबर विस्तार के थे)।ते० प्रा० (११२।३) म आया है-'जब कोई दो पक्षों को या शाला के झुकने वाले दो भागों को किसी बाँस या धरन से लगाते हैं तो वह मध्य में होता है, इसो प्रकार लोग दिवाकात्यं दिन का उपयोग दो पक्षों (अधं वर्षों) के मध्य में करते हैं।
९. स वा एष न कदाचनास्तमेति नादेति । तं यदस्तमेाति मन्यन्तेऽह्न एव तदन्तमित्वाथात्मानं विपर्यस्यते रात्रोमेवाधस्तात्कुरुतेव्हः परस्तात् । अथ यदनं प्रातरुदंताति मन्यन्त रात्ररव तदन्तमित्वाथात्मान विपर्यस्यतऽहरवावस्तात्कुरुते रात्रि परस्तात् । स वा एष न कदाचन निम्लांचति। ऐ० प्रा० (३।४४)। यह विचार कुछ पुराणों ने भाग्रहण किया है, उदाहरणार्थ, विष्णुपुराण (२।८।१५) । ब्रह्मगुप्त ने ब्राह्मस्फुटसि० (११॥३) में जैन सिद्धान्त का खण्डन किया है। ओर देखिए पञ्चसिद्धान्तिका (१३३८) ।
१०. एकादशमेतदहरुपयन्ति विषुवन्त मध्ये संवत्सरस्य । ऐ० बा० (४।१८ या १८५४)। यथा शालायै पक्षसी मध्यम वंशमभि समायच्छति एवं संवत्सरस्य पक्षसा दिवाकार्त्यमभिसंतन्वन्ति नातिमाच्छन्ति । ते० प्रा० (११२१३)। ताण्ड्यब्राह्मण (४॥६॥३-१३ एवं ४।७।१) ने विषुव दिन का उल्लेख किया है और प्रतिपादित किया है कि विवाकोय॑साम का गान उस दिन होना चाहिए, क्योंकि देवों ने उस अन्धकार को, जिससे किसी असुर के पुत्र स्वर्भानु मे.
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