SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नक्षत्रों को भारतीयता २५५ इस सूची को देखने से पता चलता है कि नक्षत्रों के नामों में कहीं-कहीं भेद है। देवता भी कहीं-कहीं भिन्न हैं। कहीं-कहीं नक्षत्र में केवल एक तारा है, तो कहीं दो, तीन या अधिक । एक प्रश्न उठता है-तै० सं० एवं तै० ब्राह्मण तथा तै० ब्रा० (११५) एवं ० ब्रा० (३।१) में अन्तर क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है। इतना ही कहा जा सकता है कि तै० सं० का वचन उपेक्षाकृत प्राचीन है। तै० ब्रा० से कई शताब्दियों पूर्व तै० सं० का प्रयणन हुआ था। किन्तु तै० ब्रा० (११५) अपने (३।१) से अन्तर क्यों रखता है ? इसका उत्तर भी कठिन है। इस विवेचन को स्थानाभाव से हम यहीं छोड़ते हैं। अब एक प्रश्न उठता है-क्या भारतीय नक्षत्र यहीं के हैं या किसी बाहरी देश से उनका ज्ञान प्राप्त किया गया? प्रसिद्ध फ्रांसीसी ज्योतिःशास्त्रज्ञ विओट का कहना है कि भारतीयों ने नक्षत्र-ज्ञान चीनियों से ग्रहण किया है और ह्विटनी महोदय भी इस मत के समर्थक हैं। कुछ अन्य विद्वानों ने यह भी कहा है कि भारतीयों ने नक्षत्र-ज्ञान बेबिलोन के लोगों या अरब लोगों से प्राप्त किया है। हम इसके विवेचन में नहीं पड़ना चाहते । स्वयं अरब लोगों ने कहा है कि उन्होंने भारतीय सिद्धान्तों से ही अपना ज्योतिःशास्त्र बनाया। अतः यह विवाद हम यहीं छोड़ते हैं (देखिए थिबो, ग्रुण्ड्रिस, पृ० १४) । बड़े विद्वान् अधिकतर दुराग्रह करते हैं और तथ्य से अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। सिइयू के चीनी सिद्धान्त में पहले केवल २४ नक्षत्र थे जो आगे चलकर लगभग ई० पू० ११०० (देखिए थिबो, ग्रुण्ड्रिस, पृ०१३) में २८ हो गये। वैदिक ग्रन्थों में २४ नक्षत्रों की कोई चर्चा नहीं है। बेबिलोन एवं चीन में राशियों का सम्बन्ध धार्मिक कृत्यों से नहीं था। वैदिक काल में कोई व्यक्ति किसी निर्दिष्ट नक्षत्र में अग्नि प्रज्वलित किये बिना कोई यज्ञ नहीं कर सकता था। माघ, फाल्गुन, चैत्र आदि मासों के नाम नक्षत्रों के आधार पर ही बने, और यह बात संस्कृत भाषा में ही पायी जाती है, यूनानी, लैटिन या चीनी में नहीं। नक्षत्रों के देवता-गण वैदिक हैं, उनके बेबिलोनी या चीनी नाम नहीं पाये जाते। बेबिलोन में जो आलेख प्राप्त हुए हैं उनमें नक्षत्रों की गणना वैसी नहीं है जैसी कि हम वैदिक साहित्य में पाते हैं। तैत्तिरीय संहिता और तै० ब्रा० के बहुत पहले से वैदिक लोगों ने नक्षत्रों की संख्या (२७ या २८) निश्चित कर ली थी। नक्षत्रों, उनके नामों, उनके देवताओं आदि के क्रम यज्ञिय कृत्यों में समाहित हो चुके थे। सभी नक्षत्रों के नाम महत्वपूर्ण (सार्थक) हैं और उनके साथ अनुश्रुतियाँ भी बंधी हुई हैं। उदाहरणार्थ, आर्द्रा का अर्थ है 'भीगा हुआ', यह नक्षत्र आर्द्रा नाम से इसी लिए प्रख्यात हुआ क्योंकि जब सूर्य इसमें अवस्थित हो तो वर्षा आरम्भ हो जाती है। पुनर्वसु का सम्भवतः यह नाम इसीलिए पड़ा कि धान एवं जौ के अनाज जो भूमि में पड़े थे अब नये धान के रूप में अंकुरित हुए। पुष्य नाम इसीलिए पड़ा कि नये अंकुर बढ़े और फलितपोषित हुए। आश्रेषा या आश्लेषा नाम इसलिए पड़ा कि धान या जौ के पौधे इतने बढ़ गये कि वे एक-दूसरे का आलिंगन करने लगे। मघा नाम इसलिए पड़ा कि धान या अन्य पौधे खड़े अन्नों के रूप में हो गये, जो स्वयं धन है। कृत्तिका नाम इसलिए पड़ा कि वे (६ या ७) चितकबरे मृगचर्म के समान हैं, जिस पर वेद के छात्र वेदाध्ययन के लिए आसन जमाते थे। इन तथ्यों के रहते हुए यह कैसे कहा जा सकता है कि भारतीयों पर नक्षत्र-सम्बन्धी बाहरी ऋण है। जिन लोगों ने बाहरी ऋण की बात कही है, उनके पास कोई उचित प्रमाण नहीं है। दुराग्रहों एव कल्पनाओं का सहारा ही कुछ विद्वानों की हळुवादिता के मूल में है। केवल एक ही बात इन दुराग्रहियों को मिलती है कि भारतीयों की नक्षत्र-गणना जो २८ तक है, बेबिलोन एवं चीनियों में भी पायी जाती है और इसीलिए कतिपय विचार किन्तु हुटवादी विद्वानो ने यह कहने का साहस किया कि लगभग ३५०० वर्ष से अधिक पहले भारतीयों ने नक्षत्र-ज्ञान उधार लिया। वहीं यह कल्पना भी सम्भव थी कि बेबिलोन एवं चीन के लोगों ने भारतीयों से यह ज्ञान प्राप्त किया या भारत, बेबिलोन एवं चीन ने किसी एक प्रागैतिहासिक मूल से यह ज्ञान प्राप्त किया। बिओट (फंच, बिआ), वेबर एवं ह्विटनी के सिद्धान्तों का खण्डन तिलक ने 'ओराएन' (विशेषतः पृ० ६१-९५) में किया है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy