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धर्मशास्त्र का इतिहास
ऊपर कहे गये व्रत के दोनों अर्थ श्रौत सूत्रों में पाये जाते हैं, उदाहरणार्थ आप० श्री० सू० ४ २ ५-७, ४।१६।११, ५।७।६ एवं १६, ५/८/१, ५।२५।२-२०, ९।३।१५, ११ १ ७, ९ १८/९; आश्व० श्री० सूत्र २।२१७, ३।१३।१-२; शां० श्री० सू० २।३।२६, जिनमें प्रथम अर्थ प्रकट होता है तथा आ० श्री० सू० १०।२२२४, १०।१७।६, ११।१५।३ एवं ६ में दूसरा अर्थ ( यथा भोजन या दूध आदि) । गृह्य सूत्रों एवं धर्मसूत्रों में भी व्रत के ये दो अर्थ प्रकट होते हैं। उदाहरणार्थं आश्व० गृ० सू० ३।१०।५-७ में आया है---' उसके लिए ये व्रत हैं, उसे रात्रि में स्नान नहीं करना चाहिए, नग्न स्नान नहीं करना चाहिए, वर्षा होते समय नहीं दौड़ना चाहिए आदि; पारस्कर गृ० सू० के अनुसार स्नातकों को समावर्तन के उपरान्त तीन दिनों तक कुछ व्रत करने पड़ते हैं, यथा मांस न खाना, जल-ग्रहण के लिए मिट्टी के पात्र को न लेना, स्त्रियों, शूद्रों, शवों, कौओं को न देखना, शूद्रों से न बोलना, सूर्याभिमुख होकर मल-मूत्र न त्यागना और न थूकना, या ये कर्म न करके केवल सत्य बोलना । गौतम ( ८/१५), शांखायन गृह्य ( २।११-१२), गोभिल गृ० ( ३।१।२६-३१) आदि ने कुछ ऐसे व्रतों का उल्लेख किया है (जो अब अप्रचलित हैं) जिन्हें प्रत्येक वेदपाठी छात्र को करना अनिवार्य था । आप० ध० सू० (२|१|१|१) ने विवाहोपरान्त पति-पत्नी के लिए यह निर्धारित किया है कि वे दिन में केवल दो बार खायें, भरपेट नहीं खायें, पर्व के दिनों में उपवास करें। इसी प्रकार उसमें ( १।११।३०।६, ११११।३१) स्नातकों के लिए व्रतों की व्यवस्था है ( अथ स्नातकव्रतानि) । पाणिनि ( ३।२।८० ) में एक विशिष्ट सूत्र है 'व्रते' । और देखिए पाणिनि ( ३।१।२१ ) ।
प्रायश्चित्तों में बहुत से कठोर नियमों के पालन का व्रत लेना पड़ता है । मनुस्मृति ( ११।११७, १७०, १७६ एवं १८१), याज्ञवल्क्य ( ३२५१, २५२, २५४, २५८), शंख (१७१६, २२, ४२, ६१, ६२) आदि स्मृतियों ने इन्हें व्रत की संज्ञा दी है। महाभारत में व्रत मुख्यतया धार्मिक संकल्प के रूप में आया है, जिसमें व्यक्ति को अन्न-सम्बन्धी या सामान्य व्यवहार में कुछ रुकावटों का पालन करना पड़ता है। देखिए बनपर्व २९६।३, उद्योग० ३९।७१-७२, शान्ति० ३५।३९, अनुशासन १०३ ३४ । महाभारत में ऐसी आचरण-व्यवस्था के लिए भी नियम हैं, जिन्हें यह आवश्यक नहीं कि हम धार्मिक कहें, उदाहरणार्थ सभापर्व ( ५८ । १६ ) में युधिष्ठिर कहते हैं कि यह मेरा शाश्वत व्रत है कि मैं बुलाये जाने पर जूआ खेलना अस्वीकार नहीं कर सकता ।' 'व्रत' शब्द के गौण अर्थों के अतिरिक्त इसके मुख्य अर्थ का प्रयोग ई० सन् की प्रथम शताब्दियों से आगे धार्मिक संकल्प के रूप में भी ग्राह्य था, जो किसी तिथि, सप्ताह-दिन, मास में लिया जाता था, और जो किसी देवी या देवता की पूजा करने पर किसी वांछित फल की प्राप्ति के लिए होता था, ऐसी स्थिति में अन्न एवं आचरण में किसी प्रकार के नियन्त्रण की व्यवस्था होती थी। इसी अर्थ में हम इस विभाग में व्रत का प्रयोग करेंगे।
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व्रत प्रायश्चित्त-स्वरूप हो सकते हैं या बन्धन रूप में, यथा ब्रह्मचारी या स्नातक या गृहस्थ के लिए अथवा इच्छा-जनित या स्वारोपित, जिनसे किसी विशिष्ट साध्य की उपलब्धि हो । प्रायश्चित्त-सम्बन्धी व्रतों का उल्लेख इस महाग्रन्थ के चौथे खण्ड में हो चुका है । ब्रह्मचारियों, स्नातकों एवं गृहस्थों के व्रतों का वर्णन दूसरे खण्ड में किया जा चुका है। इस पाँचवें खण्ड में हम स्वारोपित ( स्वतः गृहीत ) व्रतों की मीमांसा करेंगे।
१. आहूतो न निवर्ते कदाचित्तवाहितं शाश्वतं वै व्रतं मे । सभापर्व ५८ । १६ ।
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