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वैदिक साहित्य, सूत्रों एवं स्मृतियों में व्रत (भोजन) नहीं त्यागना चाहिए, यही व्रत है, अन्न (भोजन) अधिक बनाना चाहिए... (आश्रय के इच्छुक व्यक्ति को) आश्रय देना अस्वीकार नहीं करना चाहिए, यही व्रत है, अतः किसी विधि से अधिक अन्न प्राप्त करना चाहिए।" छान्दोग्योपनिषद् (अध्याय २, खण्ड १३-२१) में उन विधानों के सम्बन्ध में, जो सामनों की उपासना के समय, तप्त सूर्य के लिए वर्षा होने पर, ऋतुओं, लोकों, पालतू पशुओं, ब्राह्मणों के विरोध में कुछ न कहने के विषय में हैं तथा वर्ष भर (या कमी मी नहीं) मांस न खाने के विषय में हैं, 'तद् व्रतम्' का उल्लेख कई बार हुआ है।
व्रत के दूसरे अर्थ के लिए वैदिक साहित्य के कुछ उद्धरण निम्न हैं--तै० सं० (६।२।५।१) में आया है, वह (दीक्षित) व्रत करता है, पहले एक स्तन से, फिर दो से, फिर तीनों से और अन्त में चारों स्तनों से दूध पीता है, इसे क्षुरपवि व्रत कहते हैं, यवागू (दीक्षित) क्षत्रिय का व्रत है, आमिक्षा (गर्म दूध तथा दही का मिश्रण) वैश्य का व्रत है।" शतपथब्राह्मण (३।२।२।१० एवं १६) ने व्यवस्था दी है कि वैदिक यज्ञ के लिए दीक्षित व्यक्ति को दूध पीने का व्रत लेना चाहिए। ऐतरेय ब्राह्मण (१।२५।४) में व्यवस्था है कि दीक्षित उपसद् दिनों में व्रत के रूप में चार स्तनों से दूध लेता है, फिर तीन, दो तथा एक से लेता है। मिलाइए तैत्तिरीय आरण्यक (२।८), जहाँ ब्राह्मण याज्ञिक (यजमान) के लिए दूध, क्षत्रिय के लिए यवागू तथा वैश्य के लिए आमिक्षा की व्यवस्था दी हुई है।
ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मण ग्रन्थों के काल में व्रत' शब्द के दो गौण रूप आ चके थे, यथा (१) व्यक्ति के आचरण के लिए उचित व्यवस्था तथा (२) उपवास, अर्थात् याज्ञिक (यजमान) का रात भर गार्हपत्य अग्नि के समीप रहना या उपवास करना । प्रथम का उदाहरण ऐतरेय ब्राह्मण के अन्त में आता है, 'यह व्रत उसके लिए है (उस राजा के लिए जिसने 'ब्रह्मणः परिमरः' नामक व्रत लिया है), उसे अपने शत्रु के बैंठने के पूर्व नहीं बैठ जाना चाहिए (उसके बैठने के उपरान्त बैठना चाहिए), (सूचना मिलने पर) यदि वह सोचता है कि शत्रु खड़ा है तो उसे भी खड़ा हो जाना चाहिए; अपने शत्र के लेट जाने पर पर ही लेटना चाहिए, यदि वह समझता है कि उसका शत्रु बैठ गया है तो उसे बैठना चाहिए, उसे अपने शत्रु के सोने के पूर्व ही नहीं सोना चाहिए, यदि वह जानता है कि उसका शत्रु जगा हुआ है तो उसे भी सजग रहना चाहिए; यदि उसके शत्रु का सिर पाषाण की भांति कठोर रहे (या शत्रु के सिर पर पाषाण का टोप हो) तो भी वह (राजा जो परिमर व्रत करता है) शीघ्र उसे पछाड़ देता है' (ऐ० ब्रा० ८।२८)।
व्रत का दूसरा गौण अर्थ उपवास ठहरता है (अर्थात् यजमान दर्श-इष्टि एवं पूर्णमास-इष्टि में गाईपत्य तथा अन्य अग्नियों के पास रात्रि बिताता है और उपवास करता है या भोजन की मात्रा कम करता है), 'वह दर्श एवं पूर्णमास इष्टियों में उपवास इसलिए करता है कि देवता लोग बिना व्रत में लगे हुए व्यक्ति की हवि को नहीं ग्रहण करते, अतः वह (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए) उपवास करता है कि जिससे वे उसके यज्ञ-कर्म में भाग लें' (देखिए ऐतरेय ब्राह्मण ७।२)।
६. अन्नं न निन्द्यात् । तद् व्रतम्।...अन्नं बहु कुर्वीत तद् व्रतम्।...न कंचन वसतौ प्रत्याचक्षीत । तद् व्रतम् । तस्माद्यया कया च विषया बह्वनं प्राप्नुयात्। तै० उप० ३ (भृगुवल्ली), ७-१०।
७. अर्यकं स्तनं व्रतमपंत्ययावय त्रीनय चतुर एतत क्षुरपवि नाम व्रतं...यवागू राजन्यस्य व्रत...अ वैश्यस्य पयो ब्राह्मणस्य...ते० सं० ६।२।३।१-३॥ क्षुरपवि अथर्व० (१२।५।२० एवं ५५) में भी आया है।
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