SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास व्रतों के पति, मैं व्रत करूंगा। मैं इसे पूर्ण कर सकू। मेग यह संकल्प सफल हो, यहाँ मैं असत्य से सत्य की ओर जाऊँ।" तै० सं० (१।३।४।३) ने भी अग्नि को व्रतपति कहा है। वैदिक संहिताओं में कहीं-कहीं व्रत को किसी देवता या देवताओं के आदेश के रूप में लिया गया है (देखिए तै० सं० ४।३।११।१, २, ३ या अथर्व०७।४० (४१)१, ७।६८ (७०) १)। किन्तु संहिताओं (ऋग्वेदीय संहिताओं के अतिरिक्त), ब्राह्मणों, उपनिषदों में बहुधा अधिक स्थलों पर व्रत दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, यथा (१) धार्मिक कृत्य या संकल्प या आचरण तथा भोजन-सम्बन्धी रोक (जब कि व्रत धारण किया जाता है), अथवा (२) विशिष्ट भोजन, जो किसी धार्मिक कृत्य या संकल्प में संलग्न व्यक्ति के लिए व्यवस्थित किया जाता है, यथा गाय का दूध, यवागू (जौ की लपसी या मांड) या गर्म दूध तथा दही का मिश्रण (आमिक्षा)। यास्क ने निरुक्त में ये दोनों अर्थ दिये हैं। प्रथम अर्थ के लिए देखिए तै० सं० २।५।५।६ (यह उसका व्रत है; उसे असत्य नहीं बोलना चाहिए, मांस नहीं खाना चाहिए, स्त्री-गमन नहीं करना चाहिए और न उसे रेह से वस्त्र स्वच्छ करना चाहिए, क्योंकि देवता लोग यह सब नहीं करते); तै० सं० ५।७।६।१, जहाँ आया है, ''पक्षी अग्नि ही हैं, अग्नि चयन करने वाला जब पक्षी (का मांस) खाता है तो (समझना चाहिए कि) वह अग्नि खा रहा है, ऐसा करने से उसको क्लेश प्राप्त होगा; (अतः) उसे यह व्रत (पक्षी का मांस न खाना) वर्ष भर करना चाहिए, क्योकि व्रत एक वर्ष से अधिक नहीं चलता।" शांखायन ब्राह्मण (६।६) में आया है, उसे व्रत करना है, अर्थात् उसे सूर्योदय एवं सूर्यास्त नहीं देखना है।" तै० सं० (१।२६।६) में आया है, “यह व्रत उसके लिए (जिसने आरुणकेतक-चयन कृत्य कर लिया है) है, उसे वर्षा होते समय दौड़ना नहीं चाहिए, उसे जल में मूत्र त्याग या मल-त्याग नहीं करना चाहिए, थूकना नहीं चाहिए, नग्न-स्नान नहीं करना चाहिए, कमल-दल या सोने पर पैर नहीं रखना चाहिए और न कछुवा का मांस खाना चाहिए।" बृहदारण्यकोपनिषद् (१।५।२१-२३) में आया है, 'अब व्रत के विषय में मीमांसा आरम्भ होती है; प्रजापति ने अंगों की सर्जना की, जो सजित होकर एक-दूसरे से स्पर्धा करने लगे; वाक् (वाणी) ने कहा, मैं केवल बोलूंगी (अन्य कुछ न करूंगी). . . अतः केवल एक ही व्रत करना चाहिए, यथा केवल भीतर साँस लेनी चाहिए, वायु नहीं छोड़नी चाहिए, क्योंकि (यदि कोई अंग किसी दूसरे अंग का कर्म कर दे) इससे दुन्ति मृत्यु पकड़ लेगी।" ते० उप० (३।७-१०) में आया है, 'अन्न (भोजन) की निन्दा नहीं करनी चाहिए, यही व्रत है।. . अन्न ३. व्रतमिति कर्मनाम निवृत्तिकर्म वारयतीति सतः। इदमपीतरद् व्रतमेतस्मादेव वृणोतीति सतः। अन्नमपि व्रतमुच्यते। यदावृणोति शरीरम्। निरुक्त २।१४। ४. तस्य व्रतमुद्यन्तमेवैनं नेक्षेतास्तं यन्त चेति। शां० ब्रा० ६॥६॥ जैमिनि (११३) ने इस कथन की ओर किया संकेत है और शबर का कथन है कि ये प्रजापति-व्रत हैं, ये पुरुषार्थ हैं न कि क्रत्वर्थ, इससे सूर्योदय एवं सूर्यास्त न देखने के संकल्प या व्रत की ओर संकेत है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।११।३१।२०, उद्यन्तमस्तं यन्तं चादित्यं दर्शने वर्जयेत्), मनु० (४॥३७), वसिष्ठधर्मसूत्र (१२।१०-१२) ने इस तथा अन्य नियमों का निर्धारण सभी स्नातकों के लिए किया है। ५. अथातो व्रतमीमांसा। प्रजापतिर्ह कर्माणि ससृजे तानि सृष्टान्यन्योन्येनास्पर्धन्त यविष्याम्येवाहमिति वाग्वः।... तस्मादेकमेव व्रतं चरेत्प्राण्याच्चैवापान्याच्च नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नुवदिति। बृह० उप० ११५।२१. २३। यही वाक्य वेदान्तसूत्र ३।३।४३ का आधार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy