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________________ अध्याय २ वैदिक साहित्य, सूत्रों एवं स्मृतियों में व्रत; व्रतों की परिभाषा एवं महत्ता गत अध्याय में हमने ऋग्वेद में प्रयुक्त 'व्रत' शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ-सम्बन्धी विकास के विषय में पढ़ लिया है। अब हम इस विषय में वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणों का अवलोकन करेंगे। ऋग्वेद की कतिपय पंक्तियाँ अन्य वैदिक संहिताओं में भी मिलती हैं। इस प्रकार के स्थलों पर व्रत 'दैवी आदेश' या 'आचरण-सम्बन्धी नैतिक विधियों के अर्थ में आया है, उदाहरणार्थ, ऋग्वेद का १।२२।१९ ते० सं० के ११३।६।२ में आया है-“इन्द्र के सहायक मित्र विष्णु के कर्मों को देखो, जिनके द्वारा वह अपने व्रतों अर्थात् आदेशों की रक्षा करता है।" यह अथर्ववेद (७।२६।६), वाज० सं० (६।४) में भी आया है। और देखिए ऋ० ८।११।३६, जो अथर्व० १९४५९।१, वाज० सं० ४।१६, ते० सं० २१।१४।४-५ एवं ११२।३।१ में भी पाया जाता है; ऋ० १।२४।१५ का उद्धरण वाज० सं० के १२।१२ एवं अथर्व० के ७।८३ । (८८) ३ एवं १८।४।५९ में पाया जाता है। ऋ० १०।१९१।३ सर्वथा अथर्व० ६१६४।२ है, केवल अथर्व० में ऋ० का 'व्रतम्' 'मनः' रूप में आया है (समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम् )। ऋ० के ७।१०३।१ में, जहाँ ऐसा उल्लेख है कि मेढक, जो वर्ष भर मौन रूप से पड़े रहते हैं और वर्षागमन पर बोलने लगते हैं, उन ब्राह्मणों के समान माने गये हैं जो धामिक व्रत करते हैं (अथर्व० ४।१५।१३)। और देखिए ऋ० १०।१२।५ एवं अथर्व० १८.११३३, ऋ० १०।२।४ एवं अथर्व० १९।५९।२ तथा ऋ० ११८४११२ एवं अथर्व० २०।१०९।३। इन सभी स्थलों में 'व्रतम्' एवं 'व्रतानि' उल्लिखित हैं। अग्नि को बहुधा 'व्रतपा' कहा गया है (ऋ० ५।२।८, ६।८।२. ८।११।१ एवं १०।३२।६); सूर्य को भी ऐसा ही कहा गया है (ऋ० ११८३।५)। अन्य संहिताओं में अग्नि को 'व्रतपा' तथा 'व्रतपति' कहा गया है। मिलाइए अथर्व० २०।२५।५ (सूर्यो व्रतपाः) एवं ऋ० १८३१५ तथा अथर्व० १९।५९।१ (त्वमग्ने व्रतपा असि) एवं ऋ० ८।११।११ वाज० सं० (११५) में आया है'--'हे अग्नि! १. विष्णोःकर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इन्द्रस्य युज्यः सखा। ऋ० १।२२।१९। २. व्रतमुपैष्यन् ब्रूयादग्ने बतपते व्रतं चरिष्यामीति । ते० सं० ११६७।२; अग्ने वतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् । इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि। वाज० सं० ११५; अग्ने व्रतपते व्रतमचारिषं तदशकं तन्मेऽराधी दमहं य एवास्मि सोऽस्मि । वाज० सं० २।२८, अग्ने व्रतपते त्वं व्रतानां व्रतपतिरसि। तै० सं० २३॥४॥३; व्रतेन त्वं व्रतपते समक्तो विश्वाहा सुमना दीदिहीह। अथर्व० ७।७४ (७८)।४; देखिए शतपथ ११११२ जिस वाज० सं० ११५ एवं २०२८ उल्लिखित हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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