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धर्मशास्त्र का इतिहास में धर्म का अर्थ है 'धार्मिक कर्म या यज्ञ', जो स्पष्टतः 'व्रत' के एक अर्थ के सन्निकट आ जाता है। १११६४।४३ एवं ५० (=१०१९०।१६) में यज्ञों को आदिम-धर्मन् की संज्ञा दी गयी है (देखिए ३।१७।१ में प्रथमा धर्मा, एवं ३।३।१ में सनता धर्माणि)। कहीं-कहीं 'धर्मन्' का वास्तविक अर्थ नहीं है, यथा ४१५३।३ एवं ५।६३७, जहाँ अर्थ है 'निर्दिष्ट नियम या आचारण के नियम।' कहीं-कहीं तो 'धर्मन्' का स्पष्ट अर्थ है 'व्रत', यथा ७४८९।५, जिसका अर्थ है---"जब हम विमोहित होकर या असावधानी के कारण आपके धर्मों के विरोध में हो जायें, हे वरुण ! हमें उस पाप के कारण हानि न पहुँचाओ" (और देखिए ऋ० ११२५।१)। ऋ० ६७०।१ में आया है-- "द्यावा (स्वर्ग) एवं पृथिवी, जो कभी नष्ट नहीं होते और जो बीजों के आधिक्य से भरपूर हैं, वे वरुण के 'धर्मन्' द्वारा पृथक्-पृथक् स्थिर रखे हुए हैं।" और देखिए ऋ० ८।४०।१, जहाँ स्वर्ग को अटल रूप से स्थिर रखना वरुण के व्रतों में एक व्रत कहा गया है।
यद्यपि ऋग्वेद के कुछ मन्त्रों में 'व्रत' एवं 'धर्मन्' के अर्थ भिलते जुलते-से प्रतीत होते हैं, तथापि कुछ ऐसे भी मन्त्र हैं जहाँ तीनों (ऋत, व्रत एवं धर्मन्) या केवल दो ही पृथक्-पृथक् रूप से प्रकट हो जाते हैं। यहाँ एक बात लिख देना आवश्यक है, अथर्ववेद के उन अंशों में, जिन्हें पाश्चात्य विद्वान् पश्चात्कालीन ठहराते हैं, 'धर्म' शब्द 'धर्मन्' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (यथा, १८।२।७, १४।१।५१)। ऋग्वेद के ५।६३।७ में तीनों शब्द आये हैं। ऐसा कहा गया है--"हे विज्ञ मित्र एवं वरुण! आप लोग स्वभावतः (या अपने आचरण के स्थिर या अटल नियमों के अनुसार) असुर की जैसी आश्चर्यमय शक्ति से अपने धर्मों की रक्षा करते हैं; आप ऋत के नियमों के अनुसार सम्पूर्ण विश्व पर शासन करते हैं, आप स्वर्ग में सूर्य को, जो देदीप्यमान रथ के सदृश है, स्थापित करते हैं।" 'व्रत' एवं 'धर्मन्' ऋग्वेद के ५।७२।२ एवं ६।७०।३ में भी प्रयुक्त हुए हैं। 'ऋत' एवं 'वत' ११६५।२, २।२७।८, ३।४१७ एवं १०।६५।८ में आये हैं। सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि 'ऋत वह अखिल ब्रह्माण्डीय व्यवस्था है, जो अति प्राचीन काल से विराजमान है।' 'व्रत' का अर्थ है 'वे विधियाँ अथवा विधान' जो सभी देवों अथवा पृथक-पृथक व्यक्तिगत रूप से देवों द्वारा निर्धारित हैं। 'धर्मन्' का अर्थ है धार्मिक कृत्य या यज्ञ या निर्दिष्ट नियम ।
.. क्रमशः ऋत की धारणा धुंधली पड़ती चली गयी और पृष्ठभूमि में छिप गयी तथा 'सत्य' ने उसे आत्मसात् कर लिया। 'धर्मन' एक विमु (व्यापक) धारणा बन गया और 'बत' समाज के सदस्य के रूप में किसी व्यक्ति या केवल किसी व्यक्ति द्वारा पालित होने वाले पुनीत संकल्पों एवं आचरण-सम्बन्धी नियमों तक सीमित रह गया।
५. अचित्ती यतव धर्मा युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः। ऋ० ७।८९।५।
६. धर्मणा मित्रावरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया। ऋतेन विश्वं भुवनं वि राजथः सूर्यमा धत्थो दिवि चित्र्यं रथम् । ऋ० ५।६३।७।
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