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________________ व्रतों को परिभाषा एवं महत्ता समी धर्मों में संकल्लों एवं व्रतों की व्यवस्था है। प्राचीन एवं नवीन बाइबिल (टेस्टामेण्ट) में व्रों की पुनीतता का उल्लेख है। देखिए इसैआह १९।२१, जाब २२२७, साम २२।२५, एक्ट २१।२३। जनों में पंच महान् व्रत तथा बौद्धों में पंचशील हैं। व्रत की विस्तारपूर्वक परिभाषा के विषय में मध्यकाल के निबन्धों में बड़ी विवेचना उपस्थित की गयी है। शबर (जैमिनि, ६।२।२०) ने निष्कर्ष निकाला है कि व्रत एक मानस क्रिया है, जो प्रतिज्ञा के रूप में होती है, यथा 'मैं यह नहीं करूँगा।' मेधातिथि (मनु ४।१३) ने इसे स्वीकार किया है। अग्निपुराण ने व्यवस्था दी है कि शास्त्र द्वारा घोषित नियम ही व्रत है, इसी को तप भी कहा गया है; व्रत को तप कहा गया है, क्योंकि इससे कर्ता को सन्ताप मिलता है; इसे नियम भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें ज्ञान के कतिपय अंगों पर नियन्त्रण करना पड़ता है। मनु (२।३) ने घोषित किया है कि संकल्प सभी कामों (इच्छाओं) का मुल है, सभी यज्ञों, सभी व्रतों का मूल है, और इनकी विशेषताएँ अर्थात् यम संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं। किन्तु प्रत्येक संकल्प व्रत नहीं कहा जा सकता। यहाँ यह विचारणीय है कि अमरकोश के अनुसार 'नियम' एवं 'व्रत' समानार्थी हैं और व्रत में उपवास आदि होते हैं जो पूण्य उत्पन्न करते हैं। आप० ध० सू० (१।२।५७) में आया है कि 'तप' शब्द ब्रह्मचारी के आचार-नियमों के लिए प्रयुक्त होता है (नियमेषु तपः शब्दः)। मिताक्षरा (याज्ञ० १२१२९) के अनुसार व्रत मानसिक संकल्प है जिसके द्वाग कुछ किया जाता है या कुछ नहीं किया जाता है, दोनों कर्तव्य रूप में लिये जाते हैं। इसीलिए श्रीदत्त ने अपने समयप्रदीप में सम्भवतः शबर एवं मिताक्षरा से संकेत लेकर व्रत की परिभाषा यों की है-'यह एक निर्दिष्ट संकल्प है जो किसी विषय से सम्बन्धित है, जिससे हम कर्तव्य के साथ अपने को बांधते हैं' (स्वकर्मविषयो नियतः संकल्पो व्रतम्)। उन्होंने यह भी कहा है कि यह भावात्मक (मैं इसे अवश्य करूँगा) या अभावात्मक (मुझे इसे नहीं करना चाहिए) हो सकता है। उन्होंने आगे कहा है कि वह संकल्प, जिसके साथ कोई प्रतिबन्ध लगा हो और जो शास्त्रों द्वारा निर्धारित न हो, व्रत नहीं कहलाता, यथा यदि कोई ऐसा कहे कि वह उपवास करेगा यदि उसके पिता मना न करें, नहीं तो वह ९. शास्त्रोदितो हि नियमो व्रतं तच्च तपो मतम्। नियमास्तु विशेषास्तु प्रतस्यैव दमादयः ॥ व्रतं हि कर्तृसन्तापात्तप इत्यभिधीयते। इन्द्रियग्रामनियमान्नियमश्चाभिधीयते॥ अग्नि० १७५।२-३ । यही श्लोक गरुडपुराण (१११२८३१) में भी है। १०. संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः । व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे संकल्पजाः स्मृताः॥ मनु (२॥३३)। याज्ञ० (३॥३१२-३१३) ने दस यमों का उल्लेख किया है, यथा ब्रह्मचर्य, दया, अहिंसा, दम आदि, एवं दस नियमों का वर्णन किया है, यथा स्नान, मौन, उपवास, शौच आदि; किन्तु योगसूत्र में केवल पाँच यमों (अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिप्रहाः यमाः) एवं पांच नियमों (शौच सन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः) का उल्लेख है। मनु (४।२०४) एवं अत्रि (श्लोक ४७) ने व्यवस्था दी है कि यमों का पालन अवश्यमेव होना चाहिए। (अर्थात् ये प्रमुख कर्तव्य हैं), किन्तु नियमों में ऐसी बात नहीं है। वायुपुराण (१६३१७-१९) ने बहुत से नियम बताये हैं (जिनमें अहिंसा, अस्तेय एवं ब्रह्मचर्य भी हैं)। एकादशीतत्त्व ने मनु (२॥३) का उद्धरण देते हुए व्याख्या की है कि 'अनेन कर्मणा इदमिष्टं फलं साध्यते इत्येवंविषया बुद्धिः संकल्पस्तदनन्तरमिष्टसाधनतया अवगते तस्मिन् इच्छा जायते ततस्तदर्थ प्रयत्नं कुर्वोत इत्येवं यज्ञाः संकल्पसम्भवाः।' ११. नियमो व्रतमस्त्री तच्चोपवासादि पुण्यकम्। अमरकोश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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