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________________ ग्रह, नक्षत्र आदि की भारतीय मौलिकता २५१ मास के विषय में आगे बहुत कुछ लिखा जायगा। शब्द 'मास्' या 'मास' है। 'मास्' शब्द ऋ० (१.२५।८, ४।१८।४, १०५२।३) में है-'वह (अग्नि) प्रत्येक दिन एवं प्रत्येक 'मास्' में प्रकट होता है (ऋ० ३।३१।९)। ऋ० (५१७८।९) में भी 'मास्' आया है (वह शिशु जो मां के पेट में दस मास्' रहता है जीवितावस्था में निकल आये...)। 'मास्' का अर्थ चन्द्र भी है (ऋ० ८।९४।२, १०।१२।७-सूर्ये ज्योतिरदधुर्मास्यक्तून्, अर्थात् देवों ने सूर्य में ज्योति तथा चन्द्र में अन्धकार रख दिया)। 'मास्' (चन्द्र) एवं 'मास' (महीना) भारोपीय है, क्योंकि यह शब्द विभिन्न रूपों में भारोपीय भाषाओं में प्रयुक्त होता है। कतिपय ग्रन्थों में नक्षत्रों के विषय में लम्बे-लम्बे विवेचन उपस्थित किये गये हैं। 'नक्षत्र' शब्द के तीन अर्थ हैं-(१) सामान्य तारागण, (२) राशि-चक्र के २७ समान भाग एवं (३) राशि-चक्र के तारा-दल (जिनमें प्रत्येक के साथ एक या अधिक तारे होते हैं)। प्रस्तुत लेखक के मत से वैदिक संहिता में प्रथम एवं तृतीय अर्थ में ही नक्षत्र' का प्रयोग हुआ है। यह हो सकता है कि राशियां २७ समान भागों में विभक्त थीं और उन्हें नक्षत्र कहा गया, किन्तु सरलतर एवं अधिक रूप में प्रारम्भिक ढंग था अधिक प्रभावशाली तारों से तारा-दलों को अभिव्यक्त करना, यथा कृत्तिकाएँ, मृगशिराएँ, और उन्हें 'नक्षत्र' शब्द से सूचित करना। 'नक्षत्र' शब्द वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणों में कई बार आया है। देखिए ऋ० (११५०१२ : चोरों के समान नक्षत्र-गण, रात्रियों के समान सूर्य को लक्ष्य बनाने के लिए, जो संसार को देखता है, चले जाते हैं); ऋ० (३।५४।१९, ७।८६।१,१०।११११७, १०८५॥ २)। इन स्थानों पर 'नक्षत्र' शब्द 'तारे' के अर्थ में आया है। किन्तु ऋ० (१०८५।२ एवं १०६८।११) में (पितरों ने नक्षत्रों के साथ व्योम को अलंकृत किया), लगता है, 'नक्षत्र' शब्द विख्यात २७ तारा-पुंजों का द्योतक है। शत० ब्रा० ने कृत्तिकाओं (जो पूर्व दिशा से विचलित नहीं होतीं) एवं अन्य नक्षत्रों में (जो विचलित हो जाते हैं) भेद प्रकट किया है। दूसरा शब्द है 'स्तृ' (जो भारोपीय है) जो ऋ० (११६८१५, १।८७।१, १११६६।२ आदि) में आया है और इसका सम्बन्ध है आकाश के अलंकरण से। ऋक्ष शब्द 'तारा' के अर्थ में आया है (ऋ० १।२४।१०)-'ये ऋक्ष जो उच्च स्थिर हैं, रात्रि में दिखाई पड़ते हैं, किन्तु दिन में वे कहाँ चले जाते हैं ?' यह सप्तर्षि-मण्डल का द्योतक है। अथर्ववेद (६।४०।१) में स्पष्ट रूप से सप्तर्षि-मण्डल की ओर संकेत है-'... सप्तर्षियों को आहुति देने से हमें अभय प्राप्त हो।' शत० ब्रा० (२।१।२।४) का कहना है कि प्राचीन काल में सप्तर्षि (सात ऋषि) 'ऋक्ष' कहे जाते थे। ऋ० (५।५६।३, ८।२४।२७ एवं ८१६८।१५) में 'ऋक्ष' शब्द का अर्थ 'भालू (रीछ) या अन्य कुछ है। हमने ऊपर देख लिया है कि ऋ० (१०५५।३) में २७ नक्षत्रों की ओर संकेत मिलता है। इसके अतिरिक्त ऋ० तिष्य एवं अघा तथा अर्जुनी (१०।८५।१३) का उल्लेख करता है जिनमें अन्तिम दो अथर्ववेद के अनुसार मघा एव फाल्गुनी हैं। यह सम्भव है कि या तो अघा एवं मघा दोनों ऋग्वेदीय काल में एक ही नक्षत्र के नाम थे, या तै० सं० एवं अथर्ववेद के समयों में अघा मघा के नाम का द्योतक हो गया। अघा एवं अर्जुनी के, जो २७ नक्षत्रों में सम्मिलित थे, अतिरिक्त ऋग्वेद मृगशीर्ष, पुनर्वसु, शतभिषक् तथा कुछ अन्य नक्षत्रों के नाम भी लेता है। नक्षत्र २७ या २८ (उत्तराषाढा के उपरान्त तथा श्रवण के पूर्व अभिजित को जोड़ने से) हैं। वैदिक साहित्य, वेदांगज्योतिष, यहाँ तक कि याज्ञवल्क्यस्मृति में भी नक्षत्रों का वर्णन कृत्तिका से अपभरणी - (या भरणी) तक हुआ है, किन्तु तीसरी या चौथी शताब्दी से अब तक के ग्रन्थों में अश्विनी से रेवती तक होता है। __अब हम नक्षत्रों के नामों, उनके देवताओं, लिंग एवं उनमें रहने वाले तारों की सूची देंगे। नामों एवं नक्षत्र-देवों के विषय में मत-मतान्तर हैं। पूर्ण सूचियाँ तै० सं० (४।४।१०।१-३), तै० ब्रा० (११५ एवं ३१), अथर्ववेद (२।१३।३०) एवं वेदांगज्योतिष में मिलती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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