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________________ २५० धर्मशास्त्र का इतिहास प्रथम स्थान मिला है (तै० ब्रा० ११११२।६)। शतपथ ब्रा० (२।१।३।१-५) ने वसन्त एवं ग्रीष्म को देवों की, शरद्, हेमन्त एवं शिशिर को पितरों की ऋतुओं के रूप में वर्णित किया है, इसी प्रकार मास का शुक्ल पक्ष, दिन एवं पूर्वाल्ल देवों के लिए तथा कृष्ण पक्ष, रात्रि एवं अपराल पितरों के लिए मान्य ठहराया है, और अन्त में व्यवस्था दो है कि ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को क्रम से वसन्त, ग्रीष्म एवं शरद ऋतु में पवित्र अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए। अशोक के समय में 'वर्ष' (जो व्युत्पत्ति के अनुसार वर्षा ऋतु का द्योतक है) एवं 'संवत्सर' शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते थे। कुछ पाश्चात्य विद्वान् यह कहते हैं कि वेदकालीन भारतीयों को ग्रहों का ज्ञान नहीं था। किन्तु उनके कथन भ्रामक हैं। थिबो महोदय ने वेद-कालीन भारतीयों को ऋतु-ज्ञान-विहीन कहा था, जो उपर्युक्त विवेचन से भ्रामक ठहरता है। इसी प्रकार उनकी ग्रह-विषयक धारणाएं भी टिप्रणं हैं। थिबो (ण्डिस, प०६, ११) एवं केयी (पृ० ३३) यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि भारतीयों में ऐसे उच्च ज्ञानों तक पहुँचने की शक्ति ही नहीं थी, ग्रह-पूजा, जो याज्ञ० (१२९५-३०८) में वर्णित है, वैदिक काल में नहीं प्रचलित थी। कम-से-कम बहस्पति की ओर दो मन्त्र संकेत करते हैं। ऋ० (३७७) में आया है-'सात अध्वयं (याजक) पाँच ऋत्विजा के साथ प्रिय एवं पक्षी (अग्नि) क निहित पद की रक्षा करते हैं, बैल खाते हुए, निराय, पूर्व में आनन्दित होते हैं, देव लोग देवों के लिए बने नियमों का अनुसरण करते हैं।' यहाँ पाँच अध्वयं या बैल पाँच ग्रहों के द्योतक हैं। इसी प्रकार "उसने (इन्द्र ने) द्यावा, पृथिवी एवं रोदसा (आकाश एवं पृथिवी के मध्य स्थल) को भर दिया। वह पाँच देवों का विभिन्न रूपों में अधीक्षण करता है, ४९ देवों (मरुतों) का उचित ऋतुओं में, ३४ प्रकाशों का, जो उसके समान ही हैं, उनके विभिन्न नियमो के अनुसार अधीक्षण करता है।' 'ये पाँच बैल जो व्योम के बीच में स्थित हैं। (ऋ० १११०५।१०)। ऋ० (१०।१२३।१ एवं ५) में जो वेन' शब्द आया है वह वेनस (शुक्र) का द्योतक हो सकता है। इसकी पांचवी ऋचा का अर्थ यों है—'अप्सरा (युवा नारी) उषा (या विद्युत्) मुसकान के साथ अपने प्रेमी की और उन्मुख होती हुई, उच्च व्योम में वेन को धारण करती है, वह वेन के स्थानों में घूमती है और सुनहले पंख पर उसके साथ बैठती है।' पूर्व में सूर्योदय के पूर्व उदित होते हुए शुक्र तारे का यह सुन्दर वर्णन है। .७. बृहस्पतिः प्रथमं जायमानो महो ज्योतिषः परमे व्योमन् । सप्तास्यस्तु विजयते रवेण वि सप्तरश्मिरधमत्तमांसि ॥ ऋ० (४।५०। ४; अथर्व०२०।८८।४; बृहस्पतिः प्रथमं जायमानस्तिष्यं नक्षत्रमभिसम्बभूव । श्रेष्ठो देवानांपृतनासु जिष्णुः दिशो नु सर्वा अभयं नो अस्तु॥ ते० प्रा० (३।१।१।५)। तिष्य शब्द पुष्य का द्योतक है और इसके अधिष्ठाता (देवता) बृहस्पति हैं (तै० ब्रा०, वही); यहाँ तक कि आगे के ग्रन्थ, यथा गोभिलगृह्म (३॥३॥१४) में तैषी का अर्थ है पौषी (पौर्णमासी)। तिष्य ऋ० (५।५४।१३) में आया है। और देखिए ऋ० (१०॥६४८)। ८. आ रोदसी अपृणादोत मध्यं पञ्च देवाँ ऋतुशः सप्तसप्त। चतुस्त्रिंशता पुरुधा वि चष्टे सरूपेण ज्योतिषा विव्रतेन ॥ऋ० (१०१५५।३)। यह गूढ़ अर्थ युक्त पद्य इन्द्र की प्रशंसा में है। पाँच देव वे ग्रह हैं जो एक साथ ही नहीं प्रकट होते हैं, प्रत्युत वे अपनी ऋतु के अनुसार (ऋतुशः) प्रकट होते हैं। ३४ प्रकाश हैं--सूर्य, चन्द्र, ५ ग्रह, २७ नक्षत्र । लुडविग एवं ओल्डेनबर्ग ने यह व्याख्या स्वीकृत की है। ३४ को कोई अन्य उचित एवं सन्तोषदायिनी व्याख्या नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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