________________
२४८
धर्मशास्त्र का इतिहास
क्रम में उल्लिखित हैं। इस बात को थिबो महोदय अपने ग्रन्थ 'ण्ड्रिस' (०९) में हठवाद का आश्रय लेकर ठीक नहीं मानते और कहते हैं कि वैदिक काल में पञ्चवर्षीय युग का ज्ञान नहीं सिद्ध किया जा सकता। यह द्रष्टव्य है कि कौटिल्य ने पञ्चसंवत्सर युग का उल्लेख किया है और साथ ही साथ २॥ वर्ष एवं ५ वर्ष के अन्त के दो मलमासों को उसमें रखा है । "
महाभारत में भी पंचवर्षीय युग का उल्लेख है ( सभापर्व, ११।३८ ) । पितामहसिद्धान्त ने, जो अप्राप्य है, युग को सूर्य एवं चन्द्र का पंच वर्ष माना है और कहा है कि ३० मासों के उपरान्त एक मलमास जुड़ता है। यह उदाहरण वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका में है । "
अन्य प्रश्न है --- वैदिक काल में वर्ष का क्या विस्तार था ? ऋ० (१।१६४।११-१३ एवं ४८ ) में आया है— ऋत के चक्र (पहिए ) के बारह अर ( तीलियाँ) हैं; यह आकाश में चतुर्दिक् घूमता है; यह कभी नहीं थकता (जरा को प्राप्त नहीं होता) । हे अग्नि, इसमें (चक्र में ) ७२० पुत्रों के जोड़े निवास करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि पिता (सूर्य) के, जो नीचे पानी गिराता है, पाँच पैर एवं बारह आकृतियाँ हैं, वह द्यौ (आकाश) के सुदूर अर्ध भाग में पूर्णता के साथ रहता है । अन्य लोग कहते हैं कि वह (सूर्य) जो सबको देखता है, निम्न (स्थान) में अवस्थित है जिसमें सात चक्र एवं छः अर ( तीलियाँ) हैं; सभी भुवन पाँच अरों वाले घूमते चक्र में निवास करते हैं; एक चक्र ( पहिआ ) एवं बारह प्रधियाँ ( अन्त या धारा, जहाँ अर या तीलियाँ चक्र से मिलती हैं अथवा जो पूरे चक्र की आकृति को ग्रथित करती हैं) तथा तीन नाभियाँ - वह कौन है जो तुम्हें (भली भाँति ) जानता है ? ; उस (चक्र अर्थात् वर्ष) में ३६० अति अस्थिर खूंटियाँ हैं ।" उपर्युक्त वचनों में द्रष्टा ऋषि ने रहस्यात्मक एवं लाक्षणिक ढंग से वर्ष को ३ भागों में, ५ या ६ ऋतुओं में, १२ मासों में, ३६० दिनों, ७२० अहोरात्रों में पृथक्पृथ बाँटा है। यह कहना सम्भव है कि ऋत का चक्र राशिमण्डल है जो बारह भागों (द्वादशार, अर्थात् १२ अरों) में विभाजित है। किन्तु इस विभाजन को ठीक से मन में रख लेना कठिन कार्य है । ऋ० (१११६४।१५) में आया है - वे कहते हैं कि उनका जो एक साथ उत्पन्न हैं, सातवाँ एक ही से उत्पन्न है; देवों से केवल ६ जुड़वाँ ऋषि उत्पन्न हुए हैं।' यहाँ ६ ऋतुओं की ओर संकेत है, जिनमें प्रत्येक में दो मास हैं, सातवीं में केवल एक है
३. पञ्चसंवत्सरो युगमिति । एवमर्धतृतीयानामब्दानामधिमासकम् । ग्रीष्मे जनयतः पूर्वं पञ्चान्दान्ते च पश्चिमम् ॥ अर्थशास्त्र २, अध्याय २० ( देशकालमान) पृ० १०९ ।
४. क्षणा लवा मुहूर्ताश्च दिवा रात्रिस्तथैव च । अर्धमासाश्च मासाश्च ऋतवः षट् च भारत । संवत्सराः पञ्चयुगमहोरात्रश्चतुविधः । सभा० ११।३७-३८ ।
५. रविशशिनोः पञ्च युगं वर्षाणि पितामहोपदिष्टानि । अधिमास्त्रिंशद्भिर्मासंरवमो द्विषष्ट्या तु ॥ पञ्चसि० (१२।१) । वराह के मत से पैतामह सिद्धान्त ने 'शक २' (८० ई०) अर्थात् शक वर्ष २ से नवीन युग का आरम्भ माना है । अतः सम्भवतः यह लगभग सन् ८० ई० में प्रणांत हुआ।
६. यह सम्पूर्ण सूक्त (१।१६४) प्रहेलिकापूर्ण है । ऋ० (१।१६४।२ ) में आया है कि रथ (सूर्य) में सा घोड़े जुते हैं, इसका एक हो चक्र (पहिआ ) है जिसमें तोन नाभियाँ हैं। चक्र का अर्थ है वर्ष, तीन नाभियाँ तीन ऋतुएँ हैं, ग्रोष्म, वर्षा एवं जाड़ा । ऋ० ( १ । १६४।१२ एवं १३ ) में चक्र ६ या ५ तौलियों वाला कहा गया है; चक्र के १२ अर या प्रधियाँ मास के द्योतक हैं। देखिए निरुक्त (४/२७ ); मिलाइए आदिपर्व (३।६०) जो
(१।१६४।११-१३) के समान है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org