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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास वेदों के छ: अंगों का उल्लेख है। पाणिनीय शिक्षा (श्लोक ४१-४२) में नक्षत्र-तारकों की गतियों के विज्ञान को वेद की आँख कहा गया है। ज्योतिष, जो (ऋग्वेद एवं यजुर्वेद का) वेदांग है, केवल ज्योतिःशास्त्र-सम्बन्धी बातों से ही सम्बन्वित था। वेदांगज्योतिष (यजुर्वेद का, श्लोक ३, ४) में आया है—'वेदों की उत्पत्ति यज्ञों के प्रयोग के लिए हुई; यज्ञ कालानुपूर्वी हैं अर्थात् वे काल के क्रम से चलते हैं; अतः जो कालविधानशास्त्र ज्योतिष को जानता है, वह यशों को भी जानता है। जिस प्रकार मयूरों के सिर पर कलंगी होती है, नागों (सों) के सिर पर मणि होती है, उसी प्रकार गणित वेदांगशास्त्रों का मूर्धन्य है।' इससे प्रकट है कि उस समय गणित एवं ज्योतिष समानार्थी शब्द थे। वृद्ध-वासिष्ठसिद्धान्त में आया है-'यह शास्त्र वेद की आंख है।' आगे चलकर ज्योतिष के तीन स्कन्ध हो गये--तन्त्र (गणित द्वारा ग्रहों की गतियों का ज्ञान प्राप्त करना और उन्हें निश्चित करना), होरा (जिसका सम्बन्ध कुण्डली बनाने से है और इसे जातक भी कहा जाता है) तथा शाखा, जो एक विस्तृत स्कन्ध था और जिसमें शकुन-परीक्षण, लक्षण-परीक्षण एवं भविष्यसूचन का विवरण था। इन तीनों स्कन्धों पर रचित अन्य को संहिता कहा गया। जो इन तीनों स्कन्धों (गणित, होरा एवं शाखा) का ज्ञाता होता था, उसे संहितापारग कहा जाता था। तीसरे स्कन्ध को 'शाखा' क्यों कहा गया इसका समुचित समाधान नहीं दिया जा सका है। होरा के तीन उपविभाग थे-जातक या जन्म, यात्रा या यात्रिक एवं विवाह। गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों में यह बात पायी जाती है कि वे ज्योतिष-सम्बन्धी आवश्यकताओं एवं जानकारी को ज्योतिषशास्त्रज्ञों से लेते थे। गोभिल-गृह्यसूत्र (१।५।१३) में आया है-'इस बात पर पृथक् ग्रन्थ है, उसे पढ़ना चाहिए या पर्यो (अमावास्या या पूर्णिमा) के विषय में जानकार लोगों से पूछना चाहिए।' प्राचीन एवं मध्य काल के ज्योतिष-ज्ञान के विषय में गहरे मतभेद रहे हैं। वास्तव में, धर्मशास्त्र के इतिहास में इसका विवेचन नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस विषय पर लिखने के लिए एक पृथक् ग्रन्थ की आवश्यकता पड़गी। किन्तु ज्योतिष की दो शाखाओं (होरा एवं शाखा) का धर्मशास्त्र पर बड़ा प्रभाव पड़ा है, अतः कुछ बातों का उल्लेख आवश्यक है। यद्यपि धर्मशास्त्रकारों ने ज्योतिष से बहुत कुछ लिया है, किन्तु वे ज्योतिःशास्त्र के शब्दों को अन्तिम सिद्धान्त मानने को सन्नद्ध नहीं रहा करते थे। यदि ज्योतिशास्त्र एवं धर्मशास्त्र के सिद्धान्तों में कहीं विरोध उत्पन्न होता था तो वे धर्मशास्त्र को ही मान्यता देते थे। उदाहरणार्थ, मान लिया जाय कि एक व्यक्ति ने सप्तमी पर 'एकभवत-व्रत' किया है। संकल्प सामान्य नियम के अनसार प्रातःकाल किया जाता है। मान लिया कि वह सप्तमी षष्ठी एवं अष्टमी से संयक्त है और सप्तमी दिन के दस बजे से आरम्भ होती है। ऐसी स्थिति में 'यग्मवावय' के अनुसार षष्ठी से संयक्त सप्तमी को व्रत के लिए मान्यता प्राप्त होगी और संकल्प प्रातःकाल करना पड़ेगा, किन्तु वास्तव में ज्योतिष के अनसार तिथि उस समय षष्ठी ही रहेगी। देवल के मत से धार्मिक स्नान, दान एवं व्रतों के प्रयोग के लिए तिथि पूरे दिन भर रहेगी यदि सूर्य उस तिथि की अवधि में ही अस्त हो जाय। अन्य उदाहरणों के लिए देखिए कृ० र० (पृ. २९९) एवं स्मृतिकौ० (तिथि, पृ० १२)।। भारत की ज्योतिष-विद्या एवं फलित ज्योतिष के विषय में वेबर, ह्विटनी, थिबो आदि पाश्चात्य विद्वानों ने कल्पित आधारों पर प्रमाणरहित सिद्धान्त बघारे हैं। वे यह भूल जाते हैं कि संस्कृत साहित्य का एक विशाल मंश नष्ट हो चुका है, जिसका पता अब नहीं चल सकता। यही बात यूनान के विषय में भी है (टाल्मी के ऐल्मगेस्ट के उपरान्त यूनान का बहुत-सा साहित्य नहीं प्राप्त होता)। दूसरी बात यह है कि वे यह बात भूल जाते हैं कि जो कुछ साहित्य अवशेष है वह धार्मिक है न कि ऐतिहासिक; और जो कुछ बातें गणित के विषय की मिलती हैं वे केवल विषय प्रतिपादन के सिलसिले में ही आ गयी हैं। जिसका उल्लेख हुआ है और उस सिलसिले में जो कुछ छूट गया है उससे यह नहीं समझना चाहिए कि और अन्य बातें थीं ही नहीं। कुछ बातों के मेल से, यथा संस्थाओं एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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