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काल का व्यावहारिक विभाजन
२४३ सिद्धान्त से मेल रखता है। सुश्रुतसंहिता (२।३-५) में भी काल-विषयक विवेचन है। दार्शनिक वैयाकरणों में भर्तृहरि (वाक्यपदीय के लेखक) ने प्रकीर्णककाण्ड (कालसमुद्देश, १, ३, ३२) में कहा है कि काल एक द्रव्य है, विभु है, अन्य क्रियाओं से पृथक् अनन्त' सत्ता वाला है। स्थानाभाव से और कुछ लिखना सम्भव नहीं है। जो लोग काल के विषय में विशेष अध्ययन करना चाहते हैं वे श्री हारानचन्द्र भट्टाचार्य द्वारा लिखित एवं प्रकाशित 'कालसिद्धान्त-दर्शिनी' का अध्ययन कर सकते हैं, क्योंकि उस ग्रन्थ में विभिन्न सम्प्रदायों, शाखाओं
स्कृत ग्रन्थों में प्रतिपादित काल सम्बन्धी दार्शनिक धारणाओं का विस्तारपूर्वक विवेचन है। हम यहाँ पर पश्चिमी सिद्धान्तों की न व्याख्या करेंगे और न भारतीय दृष्टिकोण से उनकी तुलना ही।
प्राचीन समय से ही काल के सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विभाजन का आलेखन होता आया है। वाज० सं० (३२।२) में आया है-'सभी निमेष (पलक गिरने की अवधियाँ) परम पुरुष से उद्भूत हैं. वह पुरुष विद्युत् के समान देदीप्यमान है।' और देखिए महानारायण उप० (११८) । बृ० उप० (३।८।९) में आया है-'अक्षर ब्रह्म के आधिपत्य में सूर्य एवं चन्द्र दूर-दूर स्थित हैं, इसी प्रकार निमेष, मुहुर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, ऋतुएँ, वर्ष पृथक्-पृथक् हैं।' महानारायण उप० (११८-९) में काल की इकाइयां यों हैं-'निमेष, कलाएँ, मुहूर्त, काष्ठाएँ, अर्धमास, मास, ऋतुएँ एवं वर्ष । मनु (१।६४) में आया है कि १८ निमेष एक काष्ठा के, ३० काष्ठाएँ एक कला के, ३० कलाएँ एक मुहूर्त के, ३० मुहुर्त एक अहोरात्र (रात-दिन) के बराबर हैं। वराहमिहिर की बृहत्संहिता (२, पृ० २२) एवं प्रशस्तपाद (वैशेषिक सूत्र, २।२।४६ के) भाष्य में प्रारम्भिक काल वाली काल-विभाजन-सूची यों है—'व्यवहार में आने वाली इकाइयों का कारण काल है और उसके खण्ड हैं-क्षण, लव, निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त, याम (प्रहर या दिन का ? भाग), अहोरात्र, अर्धमास, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर (वर्ष), युग, मन्वन्तर, कल्प, प्रलय एवं महाप्रलय।' पुराणों में भी निमेष से प्रलय या कल्प तक के काल-विभाजन उल्लिखित हैं (देखिए ब्रह्म २३१॥६-१ १।५।६-१४; पद्म ५।३। ४-२०; वाय ५७।६-३५)। निमेष (पलक गिरने के समय) को वायु एवं विष्णुधर्मोत्तर ने ऐसा काल कहा है जो एक लघु अक्षर के उच्चारण में लगता है। विष्णुधर्मोत्तर ने कहा है कि निमेष से लघु काल की भौतिक अवधारणा सम्भव नहीं है। काल की इकाइयों की संख्या, नाम एवं समय के विषय में मतैक्य नहीं है। यथा
')-१८ निमेष १ काष्ठा, ३० काष्ठा १ कला, ३० कला १ मुहूर्त, ३० मुहूर्त १ अहोरात्र। कौटिल्य (अर्थशास्त्र २, अध्याय २०, पृ०१०७-१०८, शामशास्त्रीसंस्करण)-२ त्रुट (या त्रुटि ? )=लव, २ लव निमेष, ५ निमेषकाष्ठा, ३० काष्ठा= कला, ४० कला-नाड़िका, २ नाडिका मुहूर्त, ३० मुहूर्त=अहोरात्र। कुछ पुराणों में वही नाम आदि हैं--१५ निमेष-काष्ठा, ३० काष्ठा कला, ४० कला-नाडिका, २ नाड़िका मुहूर्त, ३० मुहूर्त=अहोरात्र (वायु ५०।१६९, ५७१७ मत्स्य १४२।४, विष्णु २।८।५९, ब्रह्माण्ड २।२९।६, शान्ति० २३२। १२)। अमरकोश-१८ निमेष-काष्ठा, ३० काष्ठ कला, ३० कला=क्षण, १२ क्षण मुहूर्त, ३० मुहूर्त अहोरात्र । भागवत (३।११।३-१०)-२ परमाणु अणु, ३ अणुसरेणु, ३ त्रसरेण =त्रुटि, १०० त्रुटि-वेध, ३ वेध= लव, ३ लव निमेष, ३ निमष-क्षण, ५ क्षण-काष्ठा, १५ काष्ठा लघ, १५ लघ-नाडिका, २ नाडिका महर्त, ३० महत-अहोरात्र। आथर्वण ज्योतिष--१२ निमेष-लव, ३० लव-कला, ३० कला-त्रटि, मुहूर्त। यह तालिका किसी तालिका से नहीं मिलती। अहोरात्र से प्रलय की इकाइयों का उल्लेख आगे होगा।
___ आगे कुछ कहने के पूर्व कुछ बातों पर विचार कर लेना आवश्यक है। ईसा से कई शताब्दियों पूर्व ज्योतिष वेदांगों में परिगणित था। मुण्डकोपनिषद् (१।१।४-५) में अपरा विद्या को यों कहा गया है-~-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द एवं ज्योतिष। आपस्तम्ब-धर्मसूत्र (२।४।८।११) में भी
मन
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