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धर्मशास्त्र का इतिहास हैं। जब हम उन क्रियाओं की श्रृंखला पर ध्यान देते हैं जिसके फलस्वरूप चावल पका तो हम भूत काल को अर्थ लगाते हैं (उन क्रियाओं से जो अन्त में निःशेष हुई)। वास्तव में यह स्वयं क्रियाओं की विशिष्टताओं पर निर्भर है।
यह ध्यान देने योग्य है कि रघुनाथ शिरोमणि ने ‘पदार्थ-निरूपण' (नव्यन्याय सम्प्रदाय के एक ग्रन्थ) में निरूपित किया है कि दिक्, काल एवं परब्रह्म एक ही हैं, वे पृथक् पदार्थ नहीं हैं।
योगसूत्रभाष्य (३।५१) में काल के विषय में एक मनोरंजक किन्तु गूढ़ विवेचन उपस्थित किया गया है। सूत्र इस प्रकार है--'क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्' अर्थात् क्षणों एवं उनके क्रमों पर संयम करने से विवेकजन्य ज्ञान उत्पन्न होता है। इस पर भाष्य यों है-'जिस प्रकार एक परमाणु द्रव्य है जो सूक्ष्म-से-सूक्ष्म तक पहुंच सकता है, उसी प्रकार क्षण काल है जो परम अपकर्ष तक (सूक्ष्म से-सूक्ष्म सीमा तक) पहुँच सकता है'...आदि-आदि। इस विवेचन से यही प्रकट होता है कि योगसूत्र एवं इसके भाष्य ने यही माना है कि काल द्रव्य नहीं है, कोई प्रकट वास्तविकता नहीं है, यह केवल एक शब्द है, एक मानसिक धारणा है जो प्रत्यक्षीकरण या भौतिक पदार्थों की विशेषता (विशेषण या उपाधि) की अनुभूति मात्र है, यह परिवर्तित वस्तुओं से सम्बन्धित है, इसकी गणना हम वस्तुओं की गति या परिवर्तन से करते हैं, यह केवल शशकशृंग (खरगोश के सींग) के समान नहीं है। ... बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों में भी काल के विषय में विवेचन है। प्रज्ञाकर गुप्त (लगभग ७०० ई.) के प्रमाणवार्तिकभाष्य या वातिकालंकार में वैशेषिकसूत्र एवं प्रशस्तपाद का खण्डन है। इसमें यह प्रतिपादित है कि काल कोई पृथक् सत्तानहीं है, यदि काल का कोई आरम्भ नहीं है और यह अनन्त है तो समय की दूरी एवं निकटता की धारणा नहीं हो सकती, दूरी, सन्निकटता या क्षिप्रता उन क्रियाओं से भिन्न नहीं हैं जिनके विषय में वे पूर्व ज्ञान देती हैं । बौद्ध मत भी कहता है कि काल कोई वस्तु नहीं है, यह विचार मात्र है, यह केवल मनुष्य के इन्द्रियज्ञान-भण्डार एवं प्रज्ञा की स्वानुभूतिमय (आत्मगत) दशा है, अपने में यह नास्तित्व का द्योतक है, यह कर्ता से भिन्न है। किन्तु जैन सिद्धान्त के अनुसार छः पदार्थ हैं, यथा जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं काल, अर्थात् काल की पृथक् सत्ता है।
कतिपय पुराणों में भी काल के विषय में विवेचन है। कूर्मपुराण (१, अध्याय ५) में काल का स्वरूप यों आया है-यह पूजनीय काल अनन्त, अजर एवं अमर है। यह सर्वगत्व, स्वतन्त्रत्व, सर्वात्मत्व रूप से महेश्वर है। यों तो बहुत-से ब्रह्मा, रुद्र, नारायण एवं अन्य देव हैं, किन्तु यह घोषित है कि एक ही भगवान् काल है। देव काल से ही सष्ट हैं और पुनः काल द्वारा कवलित होते हैं। काल की शक्ति से ब्रह्मा, नारायण, ईश (शिव) प्राकृत लय को प्राप्त होते हैं और पुनः काल के योग से उत्पन्न होते हैं । इसी से पर ब्रह्म, प्रकृति, वासुदेव एवं शंकर की सृष्टि होती है। अतः विश्व कालात्मक है। वही अकेला परमेश्वर है। और देखिए विष्णुधर्मोत्तर (११७२।१-७) जहाँ ये ही बाते दूसरे ढंग से आयी हैं। वायु एवं कूर्म दोनों में आया है-काल जीवों की सर्जना एवं संहार करता है, सभी काल के वश में हैं, काल किसी अन्य के वश में नहीं हैं' (वायु, ३२१२९-३०, कूर्म, २।२।१६)। और देखिए विष्णुपुराण (१।२। १३-१५-२६), ब्रह्मपुराण, भागवतपुराण (३।११।३-७)।
ज्योतिष के ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त में आया है-'काल लोकों का अन्त करने वाला है। दूसरा प्रकार (काल-भेद) कलनात्मक है, जिससे गणना की जाती है।' काल के दो प्रकार हैं-स्थूल एवं सूक्ष्म, जिन्हें मूर्त भी कहा जाता है और अमूर्त भी। काल-विभाजन प्राण (उच्छ्वास) आदि मूर्त हैं और त्रुटि आदि अमूर्त हैं। चरकसंहिता (सूत्रस्थान ११४८०) ने काल को ९ द्रव्यों में गिन रखा है और कहा है कि यह अचेतन है। यह प्रकट है कि यह वैशेषिक
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