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[काल की दार्शनिक धारणा
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क्रिया से संयुक्त हो जाता है। वह क्रिया क्या है ? उत्तर है, 'आदित्य (सूर्य) की गति ।' जब वही गति बार-बार होती है तो मास एवं संवत्सर (वर्ष) होता है । '
मनुस्मृति (१।२१) में परमात्मा को काल और उसके विभागों (१।२४, कालं कालविभक्तीश्च ) का सृष्टिकर्ता कहा गया है। परमात्मा विश्व सृष्टि के उपरान्त अपने में विलीन होता प्रदर्शित किया गया है, और बार-बार एक कालावधि को दूसरी कालावधि से चूसता या पीड़ित करता हुआ प्रकट किया गया है (आत्मन्यन्तर्दथे भूयः कालं कालेन पीडयन् ) ।
सांख्य ने काल को अपने २५ तत्त्वों में परिगणित नहीं किया है । किन्तु इस पद्धति में काल को अछूता नहीं छोड़ा गया है। सांख्यकारिका में १३ कारण बताये गये हैं, ३ आभ्यन्तर और १० बाह्य । बाह्य कारणों का सम्बन्ध वर्तमान से दर्शित है और आभ्यन्तर कारणों का भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों से (सांख्यकारिका १३३) । वैशेषिकसूत्र (२।२।६-९) ने काल को नौ द्रव्यों में रखा है ( पदार्थ १।५ ) । ' कुछ दार्शनिक ऐसे हैं जो काल को भूत या भविष्य मानते हैं और उसे वर्तमान की संज्ञा देने को तत्पर नहीं हैं। न्यायसूत्र इसे नहीं मानता और कहता है कि काल भूत, वर्तमान एवं भविष्य है ( २।१।३९-४३ ) | पतंजलि ( पा० ३।२।१२३ ) से प्रकट होता है कि उनके समय में कुछ ऐसे दार्शनिक थे जो वर्तमान काल को नहीं मानते थे ।
जयन्त भट्ट की न्यायमंजरी में काल पर बृहत् व्याख्या है। सर्वप्रथम इसमें उन लोगों के मतों का विवरण है जो काल की स्थिति को पृथक् इकाई के रूप में मानने को सन्नद्ध नहीं हैं। इन लोगों के अनुसार काल, घट आदि के समान, प्रत्यक्षीकृतन नहीं है और क्षिप्रता एवं मन्दता की भावनाएँ केवल निरीक्षित प्रभावों पर ही निर्भर हैं। यदि काल द्रव्य हैं, जो कि वैशेषिकों के मत से विभु एवं नित्य है, तो उसे भूत, वर्तमान एवं भविष्य के रूप में कैसे कहा जा सकता है ? इन विरोधों के उत्तर में कुछ लोग कहते हैं---काल का प्रत्यक्षीकरण सीधे ढंग से होता है, क्योंकि यह मन के अपने विभिन्न प्रभावों के रूप में प्रकट होता है; ऐसे विभिन्न अनुभव, यथा 'ये विषय एक के उपरान्त घटित हुए', 'यह बहुत देर के उपरान्त घटित हुआ', 'यह शीघ्रता से हो गया', नहीं व्याख्यायित हो सकते यदि काल का अस्तित्व न माना जाय । कुछ लोगों का मत है कि काल केवल अनुमानित है और इसका प्रत्यक्षीकरण सीधे ढंग से नहीं हो सकता। उनके तर्क हैं— 'यह कहकर कि काल का सीधे ढंग से प्रत्यक्षीकरण नहीं हो सकता, यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि काल का अस्तित्व नहीं है; यह अनुमान लगाना कि काल का अस्तित्व है, उचित है, जैसा कि चन्द्र का पिछली ओर का रूप होता है, यद्यपि हम उ सामने का ही रूप देख पाते हैं । अतः काल पृथक् इकाई के रूप में अवस्थित है, जैसा कि हम सामान्य अनुभव से प्रता, मन्दता, साथ-साथ घटित होना आदि जानते हैं। एक व्यक्ति बूढ़ा है या युवा है, इसका ज्ञान बिना काल विभु है, एक है और नित्य है । जब काल एक है, विभु है और 1 भविष्य ) कैसे सम्भव हैं ? इसका उत्तर यों है--- वास्तव में कल के विभाग नहीं हैं, ये विभाग तो कल्पनापरक हैं और ये काल की क्रिया के द्योतक हैं। यदि हम किसी व्यक्ति के विषय में यह कहें कि वह वर्तमान में चावल पाता है (ओदनं पचति ) तो यह 'पके चावल' के परिणाम के विशिष्ट स्वभाव के कारण है, जो कई क्रियाओं का प्रतिफल मात्र है, यथा अग्नि पर पात्र रखने से लेकर पृथिवी पर उतार कर रखने तक । तब हम इसे वर्तमान कहते
के नहीं हो सकता। काल आकाश की भाँति है तो इसके तीन विभाग ( भूत, वर्तमान एवं
५. सात पदार्थों (प्राचीन काल में ६) में द्रव्य एक पदार्थ है । पदार्थ वह है जिसको नाम दिया जा सके और जो ज्ञात हो, वह ऐसा नहीं है जिसकी केवल भौतिक अवधारणा मात्र हो सके ।
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