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________________ २४० धर्मशास्त्र का इतिहास मैत्री उपनिषद् (६११४-१६) में काल पर एक लम्बा विवेचन है। पहले आया है-'ऐसा कहीं पर कहा गया है कि अन्न इस सम्पूर्ण संसार की योनि है, काल अन्न की योनि है; सूर्य काल की योनि है।' इसमें पुनः आया है--'काल से सभी जीव उत्पन्न होते हैं, काल से ही वे वृद्धि प्राप्त करते हैं और काल में ही समाप्त हो जाते हैं; काल मूर्ति है (निश्चित रूप या सीमाएँ) और अमूर्तिमान (रूपरहित) है।' इसके उपरान्त इसने उद्घोषित किया है, ब्रह्म के वास्तव में दो रूप हैं, काल एवं अकाल। जो सूर्य के पूर्व है वह अकाल है अर्थात् कालरहित है (यही ब्रह्म का रूप है) और यह भागविहीन है। किन्तु जो सूर्य के साथ आरम्भित होता है यह काल है और उसके भाग भी हैं; वर्ष काल का वह रूप है जिसके भाग हैं। ये सभी जीव वर्ष द्वारा उत्पन्न होते हैं, ये उत्पन्न जीव वर्ष द्वारा वृद्धि को प्राप्त होते हैं और वर्ष में ही उनका क्षय हो जाता है। अतः वर्ष प्रजापति है, काल है, अन्न है, ब्रह्मनीड (ब्रह्म का निवास) है और आत्मा है।' फिर ऐसा कहा गया है, 'काल सभी जीवों को महान् आत्मा में पकाता है (पचाता है), किंतु जो व्यक्ति उसे जानता है जिसमें 'काल पचता है, वही वेदज्ञ है।' यहाँ मंत्री उप० ने काल को दो अर्थों में प्रयुक्त किया है, और पश्चात्कालीन कालानुभूति की धारणा व्यक्त की है--सूर्य की गतियों पर निर्धारित काल तथा ब्रह्म के स्वरूप से सम्बन्धित काल। और देखिए महानारायण उप० (११।१४), 'अहमेव कालो नाहं कालस्य', जहाँ काल को नारायण (ईश्वर) कहा गया है। ___ महाभारत में भी काल पर कई बार लिखा गया है। आदिपर्व (१।२४८-२५०) में आया है, 'काल भूतों (प्राणियों) की सर्जना करता है, काल प्रजाओं (लोगों) का नाश करता है; प्रजा के संहार में संलग्न काल काल को शमित करता है। काल शुभ एवं अशुभ स्थितियाँ उत्पन्न करता है; काल रावको समाप्त करता है और पुनः सबकी सृष्टि करता है, काल ही ऐसा है जो सबके सो जाने पर जागता रहता है ; काल अजेय है।" यही बात स्त्रीपर्व में भी है। और देखिए शान्तिपर्व (अध्याय २२४ एवं २२७), आश्वमेधिकपर्व (अध्याय ४५।१-९)। भगवद्गीता में कई स्थानों पर 'काल' शब्द 'सामान्य समय' या 'यथा समय' के अर्थ में प्रयुवरा हुआ है (यथा ४१२, ८७ एवं २७, ८।२३, १७।२०)। इसमें 'काल' शब्द कृष्ण के लिए भी प्रयुक्त हुआ है जिन्हें पर ब्रह्म कहा गया है (यथा १०१३० एवं ३३, ११॥३२)। पाणिनि ने सामान्य अर्थ में, कॉल की अवधियों या ठीक समय के अर्थ में ही 'काल' शब्द को रखा है। देखिए पतञ्जलि (पाणिनि ३।३।१६७)। पतञ्जलि ने (पाणिनि २।२।५ के दूसरे वातिक में) काल-सम्बन्धी एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त की चर्चा की है। उनका कहना है--'लोग उसको काल कहते हैं जिसके द्वारा कटोर वस्तुओं की वृद्धि (उपचय) एवं क्षय (अपचय) लक्षित होता है, और वही (काल) रात्रि एवं दिन कहा जाता है जब कि श्वेता० (६३१)। वराह को बृहत्संहिता इस अन्तिम की ओर संकेत करती है, यया--'कालं कारणमेके, स्वभावमपरे परे जगुः कर्म।' येनावृतं नित्यमिदं हि सर्वं ज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद्यः। श्वे० उ० (६२); आदिः स संयोगनिमित्तहेतुः परस्त्रिकालादकालोपि दृष्टः। श्वे० उप० (६५); मिलाइए माण्डूक्योपनिषद् 'भूतं भवद् भविष्यपिति सर्वमोंकार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव।' ४. कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। संहरन्तं प्रजाः कालं काल: शमयते पुनः। कालो हि कुरुते भावान् सर्वलोके शुभाशुभान्॥ कालः संक्षिपते सर्वाः प्रजा विसृजते पुनः। कालः सुप्तेषु जाति कालो हि दुरतिक्रमः॥ स्त्रीपर्व (२०२४)। और देखिए शान्तिपर्व (२२११४१) एवं गरुड़० (१११०८७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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