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________________ काल की प्राचीन बारमा २३९ उपर्युक्त वचनों से प्रकट होता है कि अति आरम्भिक वैदिक काल में भी 'काल' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त होता था-(१) सामान्य रूप से काल (जैसा कि आधुनिक संस्कृत एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं में) एवं (२) वह काल (महाकाल) जो परम तत्त्व के समनुरूप है या सृष्टि का मूल है। दूसरा अर्थ भी, जैसा कि हम आगे देखेंगे, बहुत-से संस्कृत ग्रन्थों (पुराणों के सहित) में दृढ रूप से अवधारित है। शतपथब्राह्मण (१७।३।३ एवं २।४।२।४) में 'काल' का प्रयोग 'समय' या 'उचित समय' के अर्थ में हुआ है-'वह (क्रुद्ध रुद्र, जो आहुतियों के भाग से वंचित किया गया था) उत्तर की ओर उस समय उड़ा जब कि स्विष्टकृत् आहुतियाँ दी जा रही थीं' (११७।३।३); प्रजापति ने (जब पशु उनके पास पहुंचे) कहा-'जब कभी तुम्हें उचित काल पर कुछ मिले या अनुचित काल पर मिले, तुम खा सकते हो' (२।४।२।४)। विद्वानों द्वारा अति प्राचीन कही जाने वाली उपनिषदों के वचन भी दिये जा सकते हैं। छान्दोग्योपनिषद् (२।३१।१) ने 'काल' का प्रयोग 'अन्त होने' के अर्थ में किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् (१।२।४) में भी आया है-'उसने आकांक्षा की 'मेरा दूसरा स्वत्व भी प्रकट हो जाता।' उसने उसे कुछ काल पर्यन्त तक, एक वर्ष तक, उत्पन्न किया, और उसके उपरान्त बहुत काल तक उसे पालित किया।' उसी उपनिषद् में गार्ग्य एवं राजा अजातशत्रु के संवाद में गार्य ने बहुत-से पदार्थ बतलाये, जिनकी उसने ब्रह्म के समान उपासना की और राजा ने उनके विषय में इन शब्दों में उत्तर दिया, 'प्राण (उच्छ्वास) काल के पूर्व उसे नहीं त्यागता' एवं काल के पूर्व मृत्यु उसके पास नहीं आती।' यहाँ 'काल' शब्द निश्चित समय का सूचक है। और देखिए कौषीतकि ब्राह्मण जो बृ० उ० (२।१।१० एवं १२) के समान ही 'काल' शब्द प्रयुक्त करता है। श्वेताश्वतर उप० (१११-२) में 'काल' शब्द सृष्टि के कारण या मूल के अर्थ में आया है--'कारण क्या है ? क्या यह ब्रह्म है ? हम कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? हम किससे जीवित रहते हैं? हम किस पर प्रतिष्ठित हैं ? (या हम कहाँ जा रहे हैं? ). . . काल या स्वभाव या आवश्यकता या संयोग या तत्त्व या योनि (प्रकृति) या पुरुष, यही विचारणीय है (इनमें से कोई कारण है)। कुछ कवियों (ऋषियों) ने स्वभाव को कारण माना है, तथा अन्य मोहित लोगों ने काल को इसका कारण माना है।' यहाँ 'काल' शब्द सृष्टि का कारण माना गया है, जैसा कि हमने ऊपर अथर्ववेद में देख लिया है। माण्डूक्योपनिषद् का कथन है कि ओंकार त्रिविध काल (भूत, वर्तमान एवं भविष्य) से ऊपर है।' भुवनानि विश्वा ॥ स एव सं भुवनान्याभरत् स एव सं भुवनानि पर्यंत्। पिता सन्नभवत्पुत्र एषां तस्माद्वै नान्यत्परमस्ति सेजः ॥ काले मनः काले प्राणः काले नाम समाहितम् । कालेन सर्वा नन्दन्त्यागतेन प्रजा इमाः॥ कालः प्रजा असृजत कालो अग्ने प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपः कालात्तपः कालादजायत ॥ अथर्ववेद (१९।५३।१, ४, ७, १०); कालो ह भूतं भव्यं च पुत्रो अजनयत्पुरा। कालादृचः समभवन्यजुः कालादजायत । इमं च लोकं परमं च लोकं पुण्यांश्च लोकान् विधृतीश्च पुण्याः। सर्वांल्लोकानभिजित्य ब्रह्मणा कालः स ईयते परमो नु देवः।। अथर्व० (१९।५४१५)। ऋग्वेद (९।११४१२) में कश्यप ऋषि के रूप में हैं, पौराणिक कथाओं में वे अदिति के पति हैं; अदिति को ऋ० (११८९।१०) में माता, पिता एवं पुत्र कहा गया है, अतः सम्भवतः यहाँ कश्यप प्रजापति ही हैं। अथर्व० (८।५।१४) में आया है कि कश्यप ने रक्षारत्न को उत्पन्न किया की : 'कश्यपस्त्वामसृजत कश्यपस्त्वा समैरयत् ।' यहाँ 'विधृति' का सम्भवतः अर्थ है 'लोकों को पृथक् करने वाली सीमाएँ।' ३. किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठाः। कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम् ॥ श्वे० उप० (१११-२); स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथान्ये परिमह्यमानाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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