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अध्याय १४ काल-धारणा
दर्शन शास्त्र की मख्य एवं बड़ी समस्याओं में 'दिक' एवं 'काल' के रूप की समस्या है। स्वभावतः प्रश्न उठते हैं--क्या दिक एवं काल अन्ततोगत्वा वास्तविक हैं ? क्या हमारा अवगम्य विश्व दिशाविहीन एवं कालविहीन है ? क्या अखिल विश्व का आरम्भ काल से है ? क्या दिक एवं काल द्रव्य-वस्तुएँ हैं या वास्तविक या वस्तुओं के गुण या सम्बन्ध हैं ? अति प्राचीन काल से अब तक इन समस्याओं के विषय में मत-मतान्तर पाये जाते रहे हैं। अतः यहाँ संस्कृत ग्रन्थों में आकलित काल-सम्बन्धी आलेखनों, कल्पनाओं एवं धारणाओं का संक्षिप्त दिग्दर्शन आवश्यक हो जाता है।
ऋग्वद म काल शब्द कवल एक बार आया है'-'जिस प्रकार द्यूत खेलने वाला कृत' (उत्क्षेप, ऊंची फेंक) को उचित काल में एकत्र करता है' (१०।४२।९ : 'कृतं यच् श्वनी विचिनोति काले')। अथर्ववेद में दो सूक्त हैं (१९।५३।१-१० एवं १९।५४।१-५) जिनमें काल की उच्चतम धारणा व्यक्त होती है। कुछ विस्मयावह मन्त्रों का अनुवाद यों है-काल सात रश्मियों (लगामों) वाले, सहस्र आँखों वाले, अजर एवं पर्याप्त बीज (शक्ति) वाले अश्व को हाँकता है अर्थात् लेकर चलता है ; विज्ञ कवि लोग उस पर चढ़ते हैं (जिस प्रकार कोई रथ पर चढ़ता है); सभी भुवन उसके चक्र (पहिए) हैं; उसी ने सभी भुवनों को एक किया और उसी ने स्वयं सभी भुवनों की परिक्रमा की; पिता होकर वह सभी (भुवनों) का पुत्र बना; उससे बढ़कर, सचमुच, कोई अन्य तेज नहीं है; काल में मन है, काल में प्राण (उच्छ्वास) है; काल में नाम समाहित है; ये सभी जीव इसके आगमन से प्रसन्न होते हैं ; काल ने प्रजा (जीवों) की उत्पत्ति की; आरम्भ में काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया; स्वयम्भू कश्यप काल से उभरे और (इसी प्रकार) तप भी काल से निकले; काल पुत्र ने अतीत (भूत) एवं भविष्य (भव्य) की उत्पत्ति की; काल से ऋचाएँ एवं यजु (यज्ञ सम्बन्धी नियम) उत्पन्न हुए; यह लोक एवं परम लोक, पुण्यलोक एवं पुण्य (पवित्र) विवृतियाँ, इन सभी लोकों को ब्रह्म द्वारा पूर्णतया जीतकर काल परम देव की भाँति चलता रहता है (निवास करता है)।२।।
१. मिलाइए 'कृतं न श्वघ्नी विचिनोति देवने।' ऋ० (१०॥४३॥५) एवं अथर्ववेद (२०॥१७॥५) को ऋ० (१०१४२।९) एवं अथर्ववेद (७.५०६ तथा २०१८९३९) 'कृतमिव श्वघ्नी विचिनोति काले' से; और .वही 'श्वघ्नीव यो जिगीवाल्लक्षमादत्' ऋ० (२।१२।४); ऋ० (१०।४११५) को व्याख्या छान्दोग्योपनिषद्
(४।११४) में यों है -'यथा कृताय विजितायाधरेयाः संयन्ति' (जिस प्रकार छोटे दाब बड़े दाब द्वारा आत्मसात होकर विजयी को प्राप्त होते हैं)।।
२. कालो अश्वो बहति सप्तरश्मिः सहस्राक्षो अजरो भूरिरेताः। तमा रोहन्ति कवयो विपश्चितस्तस्य चका
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