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धर्मशास्त्र का इतिहास हयपंचमी या हयपूजावत : चैत्र शुक्ल ५ को इन्द्र का अश्व उच्चैःश्रवा समुद्र से प्रकट हुआ था, अतः उस दिन उसकी पूजा गन्धर्वो (चित्ररथ, चित्रसेन आदि) के साथ की जाती है, क्योंकि वे उसके बन्धु कहे गये हैं; पूजा में संगीत, मिठाइयों, पोलिकाओं, दही, गुड़, दूध, चावल के आटे का उपयोग किया जाता है, इससे दीर्घ आयु, स्वास्थ्य, युद्ध में विजय की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत ० १, ५७३, शालिहोत्र से उद्धरण); स्मृतिकौस्तुभ (९२)। इसे मत्स्यजयन्ती भी कहा गया है। अहल्याकामधेनु (पाण्डुलिपि, ३६० बी)।
हरकालीव्रत : माघ शुक्ल ३, तिथिव्रत ; देवता देवी; स्त्रियों के लिए; जौ के हरे अंकुरों पर स्थापित उमा के रात्रि भर ध्यान में अवस्थित रहना, दूसरे दिन स्नान, देवी-पूजा एवं भोजन; १२ मासों में देवी के विभिन्न नामों का उपयोग तथा विभिन्न पदार्थों का सेवन; अन्त में एक सपत्नीक ब्राह्मण को दान; रोगों से मुक्ति, सात जन्मों तक सधवापन, पुत्र, सौन्दर्य आदि की प्राप्ति; शंकर ने पार्वती से पूछा है कि आपने (पार्वती ने) मेरी आधी देह पाने के लिए कौन-सा व्रत किया था।
हरतृतीया-व्रत : माघ शुक्ल ३ पर; तिथिव्रत; देवता उमा एवं महेश्वर; एक मण्डप में अष्टदल कमल का आलेखन; आठ दिशाओं में उमा के आठ नामों का न्यास, यथा-गौरी, ललिता, उमा, स्वधा, वामदेवी आदि ; चित्र के मध्य में उमा-महेश्वर की स्थापना ; गन्ध एवं पुष्पों से पूजा; चावल से पूर्ण एक कलश की स्थापना; घी की
आठ तथा तिल की सौ आहुतियों से होम ; प्रत्येक प्रहर (कुल ८ प्रहर) में स्नान एवं होम ; दूसरे दिन एक सपत्नीक ब्राह्मण का सम्मान'; इसे चार वर्षों तक करना चाहिए। इसके उपरान्त उद्यापन; आचार्य को उमा एवं महेश्वर की स्वर्ण प्रतिमा दान में दे दी जाती है; इससे सौभाग्य एवं स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत० १, ४८०-४८२)।
हरत्रिरात्रवत: बिल्व वृक्ष के तले बैठकर तीन दिनों तक उपवास करने एवं हर के नाम का एक लाख वार स्मरण करने से भ्रूणहत्या जैसे पाप भी कट जाते हैं; हेमाद्रि (व्रत० २, ३१८, सौरपुराण से उद्धरण)।
हरव्रत : अष्टमी पर कमलदल पर चित्र बनाकर उस पर हर की पूजा करना; घी एवं समिधा से होम ; हेमाद्रि (व्रत०१,८८१, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
हरिकालोवत : भाद्रपद शुक्ल की तृतीया को सूप में उगाये गये सात धान्यों के अंकुरों पर काली की पूजा; सधवा नारियाँ उसे रात्रि में किसी तालाब में ले जाकर उसका विसर्जन करती हैं; हेमाद्रि (क्त० १, ४३५-४३९, भविष्योत्तरपुराण २०११-२८)। कथा यों है--काली दक्ष की पुत्री थीं, वे काले रंग की थी और सहादेव से उनका विवाह हुआ था। एक बार देवों की सभा में महादेव ने उन्हें अंजन के समान कालीकहा। वे क्रोधित हो उठीं और अपने रंग को घास की भूमि पर छोड़कर अग्नि में कद पड़ीं। वे पूनः गौरी के रूप में उत्पन्न हुईं और महादेव की पत्नी बनीं। काली द्वारा त्यक्त काला रंग कात्यायनी बन गया, जिन्होंने देवों के कार्यों में बड़ी सहायता की। देवों ने उन्हें वरदान दिया कि जो व्यक्ति उनकी पूजा हरी घास में करेगा वह प्रसन्नता, दीर्घायु एवं सौभाग्य प्राप्त करेगा। प्रकाशित हेमाद्रि (क्त) में 'हरिकाली' शब्द आया है, किन्तु यहाँ 'हरि' (विष्णु) के विषय में कोई प्रश्न नहीं उठता। सम्भवतः यहाँ 'हरि' का अर्थ है पिंगल' रंग (काली एक बार भूरी या पिंगला थी, गोरी नहीं थी)।
हरिक्रोडाशयन या हरिक्रीडायन : कार्तिक या वैशाख १२ पर; तिथिव्रत ; देवता हरि; मधुयुक्त ताम्रपात्र में चार हाथ वाले नृसिंह की स्मणिम प्रतिमा की स्थापना, हाथों के रूप में माणिक, नखों के रूप में मूंगा का प्रयोग होता है और इसी प्रकार वक्ष, कानों, आँखों एवं सिर पर अन्य बहुमूल्य रत्न रखे जाते हैं; पात्र में
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