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बत-सूची
२३५ उनकी पूजा बच्चों के स्वास्थ्य के लिए सभी शुक्ल षष्ठियों पर करनी चाहिए; तिथितत्त्व (३५) ने चैत्र शुक्ल ६ को स्कन्दषष्ठी कहा है; स्मृतिकौस्तुभ (९३)।
स्कन्दषष्ठीव्रत : कार्तिक शुक्ल ६ को केवल फलाहार, दक्षिणाभिमुख होकर कार्तिकेय को अर्घ्य तथा एक मन्त्र के साथ दही, घी, जल एवं पुष्प चढ़ाना; कर्ता को रात्रि में भूमि पर रखा गया भोजन करना चाहिए; ऐसा करने से सफलता, सम्पत्ति, दीर्घ आयु, स्वास्थ्य, नष्ट राज्य की प्राप्ति होती है; शुक्ल या कृष्ण की षष्ठी को तेल का सेवन नहीं करना चाहिए; भविष्यपुराण (१।३९।१-१३); कृत्यकल्पतरु (व्रत०, ९९-१०१); हेमाद्रि (प्रत० १, ६०४-६०५); कृत्यरत्नाकर (४१५-४१६)। देखिए 'षष्ठी-व्रतों' के अन्तर्गत, जहाँ ऐसा व्यक्त किया गया है कि पंचमी से युक्त षष्ठी को वरीयता दी गयी है। गदाधरपद्धति (कालसार, ८३-८४) ने स्कन्दषष्ठी को चैत्र कृष्ण में रखा है।
स्त्रीपुत्रकामावाप्तिवत : यह मास-व्रत है; देवता सूर्य ; जो नारी कार्तिक में एकभक्त रहकर, अहिंसा जैसे सदाचरणों का पालन करती हई गडयक्त भात के नैवेद्य को सूर्य के लिए अर्पित करती है तथा षष्ठी या सप्तमी (दोनों पक्षों में) को उपवास करती है, वह सूर्यलोक को पहुँचती है और जब पुनः इस लोक में आती है तो किसी राजा या मनोनुकूल पुरुष को पति रूप में पाती है; मार्गशीर्ष से आगे के मासों के लिए विशिष्ट नियम बने हैं; हेमाद्रि (व्रत० २, ८२१-८२४, भविष्यपुराण से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (४०६)।
स्नापनसप्तमीवत : शिशु-अवस्था में ही मृत हो जाने वाले बच्चों की माता के लिए; भविष्योत्तरपुराण (५२।१-४०)।
___स्नुहीविटपे-मनसापूजा : श्रावण कृष्ण ५ पर मनसा-देवी की पूजा; आँगन में स्नुही पौधे की टहनी पर; सर्प-दंश का भय दूर हो जाता है; तिथितत्त्व (३३), और देखिए गत अध्याय ७।
स्नेहवत : यह मास-व्रत है ; देवता सम्भवतः विष्णु (?); आषाढ़ से लेकर चार मासों में तेल के साथ स्नान का त्याग ; केवल पायस एवं घी का सेवन ; अन्त में तिल के तेल से पूर्ण एक घट का दान ; इससे लोगों का स्नेह मिलता है ; हेमाद्रि (व्रत० २, ८१८, पद्मपुराण से उद्धरण)।
स्यमन्तक (मणि) : इसकी गाथा हरिवंश (१।३८) में है, देखिए गत अध्याय ८, गणेश चतुर्थी के अन्तर्गत । इस विषय का प्रसिद्ध श्लोक "सिंह : प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥" हरिवंशपुराण (१।३८।३६) में पाया जाता है।
स्वर्णगौरीवत : भाद्र शुक्ल ३ को; देवता गौरी; केवल नारियों के लिए; १६ उपचारों से गौरी की पूजा; पुत्रों, धन एवं सौभाग्य की प्राप्ति के लिए देवी से प्रार्थना ; उद्यापन पर १६ पुरवों (कुल्हड़ों) में १६ खाद्य पदार्थ भरकर तथा वस्त्र से ढंककर गृहस्थ ब्राह्मणों एवं उनकी पत्नियों को दान ; व्रतार्क (पाण्डुलिपि ४१ ए४४ बी); व्रतराज (९६-९७) में आया है कि यह कर्णाटक प्रान्त में व्यवहार रूप में प्रचलित है।
स्वस्तिकवत : आषाढ़ ११ या १५ से चार मासों तक; पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों के लिए समान ; कर्णाटक में प्रचलित ; पाँच रंगों में स्वस्तिक खींचकर विष्णु के समक्ष रखना; मन्दिर या भूमि पर विष्णु-पूजा; व्रतार्क (पाण्डुलिपि, ३५६ बी-३५८, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
हंसवत : पुरुषसूक्त के पाठ के साथ स्नान ; उसी के पाठ के साथ तर्पण एवं जप; अष्टदल कमल के चित्र के मध्य में स्थापित हंस नाम से पुष्पों आदि द्वारा जनार्दन की पूजा; होम ; गोदान ; एक वर्ष तक, सभी कामनाओं की पूर्ति ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२२५।१-९)।
हनुमत्-जयन्ती : चैत्र शुक्ल १५ पर।
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