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धर्मशास्त्र का इतिहास
सुदर्शनषष्ठी : इसे कोई क्षत्रिय या राजा सम्पादित करता है; किसी चक्र की नाभि पर कमल से मण्डल खींचने के उपरान्त षष्ठी पर उपवास, बीजकोष पर सुदर्शन ( विष्णु-चक्र) की स्थापना, लोकपालों के आयुधों की स्थापना दलों पर होती है; कर्ता के बाहु सक्षम रहते हैं; लाल चन्दन - लेप, सरसों, लाल कमल, लाल वस्त्रों आदि से पूजा ; गुड़ युक्त भोजन, रोटियों एवं फलों का नैवेद्य; शत्रुओं के नाश, युद्ध में विजय एवं सेना की रक्षा के लिए सुदर्शन के मन्त्रों का पाठ; विष्णु के धनुष ( शाङ्ग), गदा आदि तथा गरुड़ की पूजा; राजा को सिंहासन पर बैठाया जाता है और एक युवा स्त्री उसकी आरती उतारती है; यह कृत्य किसी अशुभ लक्षण के उदित होने पर तथा जन्म-नक्षत्र पर भी किया जाता है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ६२० - ६२४, गरुड़पुराण से उद्धरण) । सुदेशजन्मावाप्ति: यह 'सुजन्मावाप्तिव्रत' ही है; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३११९९।१-१० ) ।
सुनामद्वादशी : मार्गशीर्ष शुक्ल की द्वादशी पर ; दशमी को एकभक्त; एकादशी पर उपवास; सर्वप्रथम सूर्य-पूजा और उसके उपरान्त विष्णु-पूजा; तिथिव्रत; देवता, विष्णु; कर्ता को विचार, वचन एवं कर्म से पवित्र रहना होता है; एक जलपूर्ण कलश की स्थापना, जिसमें कुंकुम, मोती एवं बहुमूल्य रत्न डाले गये रहते हैं, उसे वस्त्र से ढँक दिया जाता है, उसमें केशव की स्वर्ण-प्रतिमा की पूजा; पौष, माघ तथा आगे के अन्य मासों की द्वादशियों पर विष्णु के विभिन्न नामों (यथा -- नारायण, माधव आदि) की पूजा; एक वर्ष तक; प्रतिमायुक्त १२ कलशों का ब्राह्मणों को दान, इसी प्रकार १२ गायों, वस्त्रों या (यदि धनहीन हो ) एक गाय तथा सोने से युक्त पात्र का दान ; हेमाद्रि ( ० १ १०६३ - १०७२, विष्णुपुराण से उद्धरण); अग्निपुराण (१८८।११) ने नामद्वादशी की चर्चा की है। सुरूपद्वादशी : पौष कृष्ण १२ पर जब कि पुष्य नक्षत्र हो; एकादशी को उपवास तथा द्वादशी को एक पूर्ण घट में, जिसके ऊपर एक पात्र में तिल रखा गया हो, हरि की स्वर्णिम या रजत प्रतिमा का पूजन; तिलयुक्त भोजन का नैवेद्य ; पुरुषसूक्त (ऋ० १०/९० ) के मन्त्रों के साथ अग्नि में तिल की आहुतियाँ उस रात्रि जागर; घर एवं प्रतिमा का दान ; कुरूपता से छुटकारा; हेमाद्रि ( व्रत० १, १२०५-१२१३ ) ; शिव ने इसे उमा को बताया और कहा कि सत्यभामा ने इससे लाभ उठाया व्रतार्क ( पाण्डुलिपि, २४७ए) ने इसे गुर्जरों में प्रचलित माना है ।
सुव्रत : चैत्र शुक्ल ८ से वासुदेव के रूपों, आठ वसुओं की गन्ध, पुष्पों आदि से पूजा; एक वर्ष तक; अन्त में एक गोदान, सभी कामनाओं की पूर्ति एवं विष्णुलोक की प्राप्ति, विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१७२।१-७) ।
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सूनक्तव्रत : यह वार व्रत है; देवता सूर्य; इसमें रविवार को नक्त विधि का प्रयोग करना चाहिए; जब हस्त नक्षत्र हो तो उस रविवार को एकभक्त तथा उसके उपरान्त प्रत्येक रविवार को नक्त । सूर्यास्त काल पर १२ दलों वाले एक कमल का चित्र लाल चन्दन से खींचना और पूर्व से आरम्भ कर आठ दिशाओं में विभिन्न नामों ( यथा --- सूर्य, दिवाकर) का न्यास; कमल के बीजकोष के पूर्व में सूर्य के घोड़ों का न्यास; ऋग्वेद एवं सामवेद के प्रथम मन्त्रों एवं तैत्तिरीय संहिता के प्रथम चार मन्त्रों के साथ अर्घ्य ; एक वर्ष तक; कर्ता रोग मुक्त होता है, सन्तति एवं धन की उपलब्धि करता है तथा सूर्यलोक जाता है; हेमाद्रि ( व्रत० २, ५३८-५४१, मत्स्यपुराण से उद्धरण) । सूर्यपूजाप्रशंसा : विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१७१११-७) ने एक वर्ष तक सभी सप्तमियों पर सूर्य पूजा या एक वर्ष तक रविवार पर नक्त विधि से भोजन करने या सूर्योदय पर सदा सूर्य-पूजा करने से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है। भविष्यपुराण ( ११६८१८ -१४ ) ने सूर्य पूजा के लिए उपयुक्त विशिष्ट पुष्पों तथा उनके अर्पण से उत्पन्न फलों का उल्लेख किया है।
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सूर्यरथयात्रा - माहात्म्य : भविष्यपुराण ( ११५८ ) । सूर्य की रथयात्रा माघ में प्रारम्भ होती है। यदि प्रति वर्ष न की जाय तो एक बार करने के १२ वर्षों के उपरान्त इसे सम्पादित करना चाहिए; इसे अल्पावधियों में तोड़
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