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प्रत-सूची
२२९ सुखसुप्तिका : यह सुखरात्रि ही है; हेमाद्रि (व्रत० २,३४८-३४९, आदित्यपुराण से उद्धरण); कृत्यकल्पतरु (नयतकालिक, ४२१-४२२)।
सुखचतुर्थी : शुक्ल पक्ष में चतुर्थी जब मंगलवार को पड़ती है तो उसे सुखचतुर्थी या सुखदाचतुर्थी कहते हैं; हेमाद्रि (व्रत० १, ५१४. भविष्यपुराण १।३१११६ से उद्धरण); कृत्यरत्नाकर (२७१); वर्षक्रियाकौमदी (३१, देवीपुराण से उद्धरण)।
सुगतिद्वादशी : फाल्गुन शुक्ल ११ से प्रारम्भ ; तिथिव्रत, कृष्ण देवता; उस दिन उपवास, कृष्ण-पूजा; १०८ बार कृष्ण का नाम-जप; एक वर्ष तक ; ४-४ मासों के क्रम से ३ अवधियों में विभाजित ; फाल्गन से आरम्भ होने वाले चार मासों में कृष्ण-नामजप एवं कृष्ण-प्रतिमा के पादों पर जल की तीन धाराएँ; आषाढ़ से आश्विन तक की दूसरी अवधि में केशव-नामजप (जिससे कि मृत्यु के समय केशव नाम स्मरण हो सके); तीसरी अवधि में विष्णुनाम का जप; देवी सुख एवं विष्णुलोक की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि (व्रत०१,१०८१-१०८३,विष्णधर्मोत्तरपुराण ३।२१५।४-२२ से उद्धरण)।
सुगतिपौषमासीकल्प : (पौर्णमासी ? ) फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा पर; तिथिव्रत ; देवता विष्णु ; कर्ता तेल एवं नमक का त्याग करके नक्त-विधि से रहता है ; एक वर्ष तक, ४ मासों की तीन अवधियों में ; लक्ष्मी के साथ केशव की पूजा; उस दिन नास्तिकों, पाषण्डियों, महापातकियों एवं चाण्डालों से नहीं बोलना चाहिए; हरि एवं लक्ष्मी को चन्द्र एवं रात्रि के समान माना जाता है; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।२१६-१७) ।
सुगतिव्रत : (१) देवों के स्वामी की पूजा से सर्वोत्तम स्थिति की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० १, ७९२, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); (२) एक वर्ष तक सभी अष्टमियों पर नक्त-विधि से भोजन करना; अन्त में गोदान' ; इन्द्र की स्थिति की प्राप्ति; तिथिव्रत; देवता इन्द्र; हेमाद्रि (व्रत० १, ८८१, पद्मपुराण से उद्धरण); मत्स्यपुराण (१०११५६); अहल्याकामधेनु (पाण्डुलिपि ५६१ बी) ने इसे सुगत्यष्टमी कहा है।
सुजन्मद्वादशी : पौष शुक्ल १२ पर जब कि यह ज्येष्ठा-नक्षत्र पर पड़ती है; तिथिव्रत ; देवता विष्णु; उपवास के साथ एक वर्ष तक प्रति मास विष्णु-पूजा; प्रति मास क्रम से घी, चावल, जौ, सोना, पकाये जौ, जल, पकाये अन्न, छत्र, पायस, गन्ना-रस, चन्दन एवं वस्त्र का दान और क्रम से निम्नलिखित को ग्रहण करना---गोमूत्र, जल, घी, हरी तरकारियाँ, दूर्वा, दही, चावल, जौ, तिल, सूर्य की किरणों से गर्म किया गया जल, दर्भयुक्त जल, दूध; रोग-मुक्त, मेधावी, प्रसन्न हो जाता है तथा उस कुल में पुनः उत्पन्न होता है जहाँ धन, अन्न आदि का प्राचुर्य होता है और चिन्ता नहीं व्यापती; हेमाद्रि (व्रत० १, ११७४-७५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
सुजन्मावाप्तिवत : यह संक्रान्तिव्रत है; जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन इसका आरम्भ होता है; यह वर्ष की सभी १२ संक्रान्तियों पर किया जाता है ; प्रति संक्रान्ति पर उपवास, क्रम से सूर्य, भार्गव राम (परशुराम), कृष्ण, विष्णु, वराह, नरसिंह, दाशरथि राम, राम (बलराम), मत्स्य की प्रतिमाओं की पूजा; इनके चित्र भी किसी वस्त्र पर बनाकर पूजे जा सकते हैं। प्रत्येक संक्रान्ति पर उपयुक्त नाम' से होम'; एक वर्ष तक ; अन्त में जलधेनु का, छत्र एवं चप्पलों के साथ दान; प्रत्येक मास में सोने एवं दो वस्त्रों का दान ; दीपमाला से रात्रि में पूजा; कर्ता निम्न पशुओं एवं म्लेच्छों में जन्म नहीं पाता; हेमाद्रि (व्रत० २, ७२७-७२८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण); पुरुषार्थचिन्तामणि (१२); हेमाद्रि ने तुला एवं अन्य दो आगे वाली राशियों में पूजा का उल्लेख नहीं किया है। किन्तु विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१९९) में ऐसा आया है कि जब सूर्य क्रम से तुला, वृश्चिक एवं धनु राशि में प्रवेश करता है तो क्रम से वामन, त्रिविक्रम एवं अश्वशीर्ष (हयग्रीव) की पूजा होती है।
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