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________________ व्रत-सूची २२७ एवं उपनयन के सम्पादन के विषय में कई मत हैं, कुछ लोगों का कथन है कि विवाह एवं अन्य शुभ कर्म मघा नक्षत्र वाले बृहस्पति (अर्थात् सिंह के प्रथम १३३ अंश में) में वजित हैं। अन्य लोगों का कथन है कि गंगा एवं गोदावरी के मध्य के प्रदेशों में विवाह एवं उपनयन सिंहस्थ गुरु के सभी दिनों में वजित हैं; किन्तु अन्य कृत्य मघा नक्षत्र में स्थित गुरु के अतिरिक्त कभी भी किये जा सकते हैं। अन्य लोग ऐसा कहते हैं कि जब सूर्य मेष राशि में हो तो सिंहस्थ गुरु का कोई अवरोध नहीं है। इस विवेचन के लिए देखिए स्मृतिकौस्तुभ (पृ० ५५७५५९)। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अमृत का कुम्भ जो समुद्र से प्रकट हुआ, सर्वप्रथम देवों द्वारा हरिद्वार में रखा गया, तब प्रयाग में और उसके उपरान्त उज्जैन तथा अन्त में नासिक के पास व्यम्बकेश्वर में रखा गया। सितसप्तमी : मार्गशीर्ष शुक्ल ७ पर उपवास, कमलों एवं श्वेत पुष्पों से सूर्य या उसकी प्रतिमा की पूजा; अन्त में श्वेत वस्त्रों का दान ; हेमाद्रि (व्रत० १, ७७८-७७९, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)। सितासप्तमी : भुवनेश्वर में ; १४ यात्राओं में एक यात्रा; माघ शुक्ल सप्तमी पर; गदाधरपद्धति (कालसार, १९१)। सिद्ध : शुक्रवार, प्रथमा, षष्ठी, एकादशी, त्रयोदशी, नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराषाढा, हस्त, श्रवण एवं रेवती को सिद्ध कहा जाता है। इनमें सभी शुभ कृत्य किये जाते हैं ; निर्णयामृत (३०)। सिद्धार्थकादिसप्तमी : माघ या मार्गशीर्ष शुक्ल ७ पर, यदि अस्वस्थता हो तो किसी भी मास की सप्तमी पर; सूर्योदय के पूर्व आधे प्रहर (लगभग चार घटिकाओं) तक दांतों को विशिष्ट वृक्षों की टहनियों से स्वच्छ किया जाता है (जिनमें प्रत्येक किसी कामना की पूर्ति के योग्य मानी जाती है, यथा मधूक से पुत्र प्राप्त होते हैं, अर्जुन से सौभाग्य स्थिर होता है, निम्ब से समृद्धि प्राप्त होती है, अश्वत्थ से यश मिलता है. . .आदि)। जब दातुन फैक दी जाती है तो उसके गिरने के ढंग से शकुन निकाले जाते हैं । सात सप्तमियां मनायी जाती हैं, पहली सरसों से, दूसरी अर्क की कलियों से, तीसरी से सातवीं सप्तमी क्रम से मरिच, निम्ब, ६ फलों, भोजन (भात नहीं) से; जप, होम, सूर्य-पूजा, सूर्य-प्रतिमा के समक्ष सोना; गायत्री का पाठ (ऋ० ३।६२।१०); सूर्य-प्रतिमा के समक्ष सोते समय आये हुए स्वप्नों का निरूपण; विभिन्न पुष्पों से सूर्य-पूजा करने से विभिन्न लाभ, यथा-कमलों से यश, मन्दार से कुष्ठ हरण, अगस्त्य से सफलता आदि ; ब्रह्म-भोज एवं रंगीन वस्त्रों, सुगन्धों, पुष्पों, हविष्य भोजन, एक गाय का दान; कृत्यकल्पतरु (व्रत० १७२-१८०); हेमाद्रि (व्रत० १, ६७९-६८५, भविष्यपुराण १११९३।२-२१ से उद्धरण); कृत्यकल्पतरु (व्रत०) ने भविष्यपुराण (१९७।१-१०) को उद्धृत किया है। - सिद्धिविनायकवत : शुक्ल ४ पर या जब श्रद्धा एवं भक्ति से प्रेरित कोई हर्षपूर्ण जागरण हो तब गणेश की पूजा; तिलयुक्त जल से स्नान ; गणेश की हिरण्य या रजत की प्रतिमा की पूजा; पंचामृत से प्रतिमास्नान तथा गन्ध, पुष्पों, धूप दीप एवं नैवेद्य का, गणाध्यक्ष, विनायक, उमासुत, रुद्रप्रिय, विघ्ननाशन के नामों के साथ अर्पण; २१ दूर्वाशाखाओं का अर्पण, २१ मोदक प्रतिमा के समक्ष रखे जाते हैं, एक गणेश के लिए, १० पुजारी तथा १० कर्ता के लिए; विद्या, धन एवं युद्ध में सिद्धि (सफलता) की प्राप्ति ; हेमाद्रि (व्रत० १, ५२५५२९, स्कन्दपुराण से उद्धरण); स्मृतिकौस्तुभ (२१०-२१६); पुरुषार्थचिन्तामणि (९५); व्रतराज (१४३१५१)। __ सीतलाषष्ठी : माघ शुक्ल ६ पर; बंगाल में प्रचलित; गुजरात में श्रावण कृष्ण ८ पर सीतलासप्तमी; उत्तर भारत में फाल्गन (चैत्र) कृष्ण ८ पर सीतलाष्टमी। सीतापूजा : (१) 'सीता' का अर्थ है 'कर्षित भूमि'। कृत्यरत्नाकर (५१८, ब्रह्मपुराण से उद्धरण) में आया है कि नारद के कहने पर दक्ष के पुत्रों द्वारा फाल्गुन कृष्ण ८ को पृथिवी मापी गयी थी; अतः देव एवं पितर लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002792
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1971
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size18 MB
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