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धर्मशास्त्र का इतिहास
सहभोजनविधि : सहस्र ब्राह्मणों को भोज देने की विधि; स्मृतिकौस्तुभ ( ४५४-४५५, बौधायन सूत्र का उद्धरण) । इसे अपने घर या किसी मन्दिर में करना चाहिए; पके भोजन से तथा घृत से होम, विष्णु के १२ नामों, यथा -- केशव, नारायण आदि का प्रयोग; भाँति-भाँति के दान ।
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सागरव्रत : यह चतुर्मूतिव्रत है; मासव्रत; श्रावण से चार मासों तक; चार जलपूर्ण घटों को चार समुद्रों के रूप में ( हरि के चार रूप, यथा - वासुदेव, संकर्षण आदि) पूजना; इन मासों के सभी दिनों में किसी नदी में स्नान; प्रतिदिन होम; कार्तिक के अन्तिम दिन में ब्राह्मणों को सम्मान एवं तिल के तेल का दान ; स्वर्ग प्राप्ति हेमाद्रि ( व्रत० २,८२९, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१४५।१-६ से उद्धरण) ।
साधनदशमीव्रत : शुक्ल एवं कृष्ण की दशमी पर यह एकादशी का एक अंग है; अहल्याकामधेनु ( पाण्डुलिपि ६४० ) ।
साध्यव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल १२ पर; तिथिव्रत; देवता साध्य गण; एक वर्ष तक; साध्य गण १२ अर्धदेव कहे जाते हैं; हेमाद्रि ( व्रत० १ ११७३, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३ | १८१११- ३ से उद्धरण); विष्णुधर्मोत्तरपुराण ने १२ साध्यों के नाम दिये हैं ।
सामव्रत : यह संवत्सरव्रत है; एक वर्ष तक गोबर से बने वृत्त में शिव एवं कृष्ण की प्रतिमा को स्नान कराना; अन्त में किसी सामवेदी ब्राह्मण को तिलधेनु के साथ एक स्वर्णघट का दान ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४२-४४३, मत्स्यपुराण १०१।२५-२६ से उद्धरण); हेमाद्रि (व्रत० २, ८६४, पद्मपुराण के श्लोक ) ।
सारस्वतव्रत : (१) यह संवत्सरव्रत है; मत्स्यपुराण (६६।३-१८ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४३५-४३६ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ५५३-५५५; शुक्ल पक्ष की उस तिथि पर जिसके अपने प्रिय देवता स्वामी हों या पंचमी पर, रविवार को या किसी शुभ दिन पर आरम्भ; दोनों संध्याओं में एवं भोजन करते समय मौन व्रत; सरस्वती पूजा तथा सुवासिनियों (सधवा नारियों) का सम्मान पद्मपुराण ( ५।२२।१७८-१९४ ) ; भविष्योत्तरपुराण ( ३५ । ३-१९); (२) एक वर्ष तक दोनों संध्याओं में मौन साधन; वर्ष के अन्त में घृतपूर्ण घट, दो वस्त्रों, तिल एवं एक घण्टे का दान ; सरस्वती - लोक की प्राप्ति; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ४४१ ) ; हेमाद्रि (व्रत० २,८६२, पद्मपुराण से उद्धरण) ; यह मत्स्यपुराण ( १०१।१७-१८) में वर्णित है; (३) चैत्र शुक्ल १ से प्रारम्भ कर सात दिनों तक ; सुप्रभा, कांचनाक्षी, विशाला, मानसरोवर, त्रिनादा, सुवेणु, विमलोदका ( ये सभी सरस्वती के या उसकी शाखाओं के नाम हैं) की पूजा; प्रतिदिन दही से होम; दही से मिश्रित ब्रह्म-भोज; रात में घृत के साथ भात खाना; एक वर्ष तक; अन्त में अर्थात् फाल्गुन कृष्ण में अन्तिम सात दिनों तक एक से आरम्भ कर क्रम से सात वस्त्रों का दान ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१६४।१-७) ।
सार्वभौमव्रत : कार्तिक शुक्ल १० से आरम्भ; उस दिन दही एवं पके भोजन से नक्त-विधि; पवित्र भोजन से दस दिशाओं की पूजा; विभिन्न रंगों के पुष्पों एवं भोज्य पदार्थों से ब्राह्मणों का सम्मान; एक वर्ष तक; जो राजा इसे करता है, वह विजयी एवं सम्राट् हो जाता है; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० ३०९ ) ; हेमाद्रि ( व्रत० १, ९९२९९३), दोनों में वराहपुराण (६५।१-६ ) से उद्धरण; कृत्यरत्नाकर (४२० ) ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१६४-१-७)। सावित्रीव्रत: देखिए गत अध्याय ४ ।
सिंहस्थ-गुरु : जब बृहस्पति सिंह राशि में रहता है तो शत्रु पर आक्रमण, विवाह, उपनयन, गृह प्रवेश, देवप्रतिमा स्थापना तथा कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है; मलमासतत्त्व ( पृ० ८२८ ) ; भुजबलनिबन्ध ( पृ० २७४ ); शुद्धिकौमुदी ( पृ० २२२ ) । ऐसा विश्वास है कि सिंहस्थ बृहस्पति में सभी तीर्थस्थान गोदावरी में आ जाते हैं, अतः उस समय उसमें स्नान करना चाहिए ( ऐसा काल एक वर्ष तक रहता है) । सिंहस्थ गुरु में विवाह
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