________________
व्रत-सूची
२२३
प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० २, ४६४-४६५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण ३।१६०।१-७ से उद्धरण) । कभी-कभी समुद्र के सात प्रकार कहे गये हैं, यथा वायुपुराण (४९।१२३) एवं कूर्मपुराण (१।४५।४) में, और वे हैं लवण, ईख के रस, मद्य, दूध, घी, दही एवं जल के समुद्र।
समुद्र-स्नान : पूर्णिमा एवं अमावास्या जैसे पर्वदिनों पर समुद्र में स्नान करना चाहिए, किन्तु मंगलवार एवं शुक्रवार को नहीं; समुद्र एवं अश्वत्थ वृक्ष का सम्मान करना चाहिए, किन्तु उन्हें छूना नहीं चाहिए, किन्तु शनिवार को अश्वत्थ का स्पर्श किया जा सकता है ; सेतु अर्थात् रामेश्वरम् में स्नान करने के लिए काल सम्बन्धी कोई अवरोध नहीं है; धर्मसिन्ध (३६)।
सम्पद्-गौरीदात : माघ शुक्ल १पर ; कुम्भ मास में सभी विवाहित एवं अविवाहित नारियों के लिए।
सम्पद्-प्रत : पंचमी को लक्ष्मी-पूजन एवं उपवास ; एक वर्ष तक ; वर्ष के अन्त में कलश में कुछ सोना रखकर दान ; कर्ता प्रत्येक जन्म में धनी होता है और विष्णु-लोक जाता है; यह षष्ठी का व्रत है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ४४१-४४२, मत्स्यपुराण १०१।१९-२०); वर्षक्रियाकौमुदी (३४, मत्स्यपुराण से उद्धरण)।
सम्पूट-सप्तमी : देखिए ऊपर 'अर्कसम्पूटसप्तमी'।
सम्पूर्णवत : किसी त्रुटि या अवरोध या विघ्नविनायकों द्वारा दूषित किये गये सभी व्रतों को यह व्रत पूर्ण कर देता है; किसी देव की अपूर्ण पूजा में उस देव की स्वर्ण या रजत प्रतिमा का निर्माण करना चाहिए ; उसके निर्माण के एक मास उपरान्त किसी ब्राह्मण द्वारा उसे दूध, दही, घी एवं जल से स्नान कराकर पुप्पों आदि से पूजा करनी चाहिए तथा चन्दन लेप से सिक्त जलपूर्ण कलश से उस देव को अर्घ्य देना चाहिए और अपूर्ण पूजा को पूर्ण करने के निमित्त प्रार्थना करनी चाहिए और 'स्वाहा' के साथ आहुतियाँ दी जानी चाहिए; आचार्य द्वारा 'तुम्हारी अपूर्ण पूजा पूर्ण हो गयी है' कहा जाना चाहिए। पुराण ने जोड़ा है—'देव ब्राह्मणों की बात मान लेते हैं; ब्राह्मणों में सभी देव अवस्थित रहते हैं; उनके वचन असत्य नहीं होते'; हेमाद्रि (व्रत० २,८७६-८७९, भविष्योत्तरपुराण से उद्धरण)।
सम्प्राप्ति-द्वादशी : पौष कृष्ण १२ पर; अच्युत (कृष्ण) की पूजा; नास्तिकों आदि से न बोलना; वर्ष के दो भागों में ; पौष से ६ मासों में क्रमशः पुण्डरीकाक्ष के रूप में, माधव रूप में (माघ में), विश्व रूप रूप में (फाल्गुन में), पुरुषोत्तम रूप में (चैत्र में), अच्युत रूप में (वैशाख में) तथा जय रूप में (ज्येष्ठ में); प्रथम ६ मासों में स्नाम एवं भोजन में तिल का प्रयोग ; आषाढ़ से आगे के ६ मासों में पंचगव्य ; इन ६ मासों में भी पूर्वोक्त नामों से ही पूजा; एकादशी को व्रत तथा द्वादशी को नक्त या एकभक्त; वर्ष के अन्त में एक गाय, वस्त्र, हिरण्य, अन्न, भोजन, आसन एवं पलंग का 'केशव प्रसन्न हों' के साथ दान ; सभी कामनाओं की पूर्ति, इसी से व्रत का नाम सम्प्राप्ति है; हेमाद्रि (व्रत० १, १०९४-१०९५, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
सम्भोग-व्रत : दो प्रथम एवं दो पंचमी तिथियों पर उपवास ; सूर्य का ध्यान, पत्नी के साथ लेटे हुए भी न तो प्रेम प्रदर्शित करना और न संभोग करना; ऐसा करने से सहस्रों वर्षों के तप के बराबर फल होता है; कृत्यकल्पतरु (व्रत० ३८८); हेमाद्रि (व्रत० २,३९४, भविष्यपुराण से उद्धरण)।
सरस्वतीपूजाविधि : आश्विन शुक्ल में मूल-नक्षत्र पर सरस्वती का आवाहन, प्रतिदिन पूजा और श्रवण (जो मूल से चौथा नक्षत्र है) पर विसर्जन वुल ; चार दिनों तक सामान्यतः आश्विन शुक्ल ७ से १० तक ; व्रतराज (२४८-२४९); वर्षकृत्यदीपक (९३ एवं २६८-२६९); दोनों ग्रन्थों में ऐसा आया है कि इन दिनों अध्ययन, अध्यापन एवं पुस्तक-लेखन वजित है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org