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व्रत-सूची एवं लक्ष्मण को ब्रह्म-भोज न देने के कारण वनवास भोगना पड़ा, राजा श्वेत को स्वर्ग में भी भूख की पीड़ा सहनी पड़ी, क्योंकि उसने भूखे ब्राह्मणों को भोजन नहीं दिया था । इस व्रत का अर्थ है सदा भोजन (व्रत) देना । आजकल इसे ‘सदावर्त’, 'सदावर्त' या 'सदाबरत' कहते हैं । हेमाद्रि ( व्रत० २, ४७१ ) में एक श्लोक है 'भोजन प्राणियों का जीवन है, यही उनकी शक्ति है, शौर्य है और सुख है, अतः अन्नदाता प्रत्येक वस्तु का दाता कहा जाता है, देखिए तै० उप० ( १|१११२ ) : अतिथि देवो भव; और देखिए अथर्व ० ( ९।६ ) एवं कठोपनिषद् (21219) 1
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सन्तानदव्रत : तिथिव्रत ; जो कार्तिक पूर्णिमा को अपनी या दूसरे की कन्या को विवाह में देता है, नदियों के संगम पर उपवास करता है, वह सुखद लक्ष्य की प्राप्ति करता है; हेमाद्रि ( व्रत० २,२३८, भविष्योतरपुराण से उद्धरण ) ।
सन्तानाष्टमी : चैत्र कृष्ण ८ पर; तिथिव्रत; कृष्ण एवं देवकी की पूजा; उपवास; एक वर्ष के लिए; चार मासों की अवधि में अष्टमी पर कृष्ण- प्रतिमा का घी से स्नान एवं घी का दान हेमाद्रि ( व्रत० १, ८४६ -८४७, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, ३।२१७११-११ का उद्धरण ) ।
संध्या : सूर्योदय के पूर्व एवं सूर्यास्त के उपरान्त तीन घटिकाओं ( ७२ मिनटों) की अवधि; इस अवधि में निम्नलिखित चार कार्य नहीं किये जाने चाहिए - भोजन करना, सम्भोग करना, सोना एवं वेदाध्ययन; हेमाद्रि (काल, ६९४-६९७); पुरुषार्थविन्तामणि ( ४६ ) ; बृहज्जातक ( ७।१) पर उत्पल ने वराह को उद्धृत करके लिखा है कि सूर्य के क्षितिज के नीचे चले जाने तथा तारों के प्रकट होने तथा पूर्व में अर्ध-चन्द्र के प्रकाश होने तक की अवधि को संध्या कहते हैं ।
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सप्तद्वीपव्रत : चैत्र शुक्ल १ से प्रारम्भ; सात दिनों तक क्रम से सात द्वीपों, यथा -- जम्बू, शाक (शकों का ), कुश, क्रौंच, शाल्मलि, गोमेद एवं पुष्कर की पूजा; घी से होम एवं सात धान्यों का दान नक्त-विधि एवं भूमि-शयन; एक वर्ष; चाँदी से बने द्वीपों की आकृति का दान ; कल्पान्त तक स्वर्ग में स्थिति; विष्णुधर्मोत्तरपुराण (३।१५९।१९७) ।
सप्तमी - निर्णय : जब सप्तमी पष्ठी एवं अष्टमी से विद्ध होतो सप्तमी का व्रत षष्ठी से विद्ध सप्तमी पर होना चाहिए, किन्तु यदि किसी कारण से षष्ठी से युक्त सप्तमी न मानी जाय तो अष्टमी से युक्त सप्तमी ग्रहण करनी चाहिए; कालनिर्णय ( १९२-१९४ ) ; तिथितत्त्व ( ३५-३६ ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि १०३-१०४) ।
सप्तमीलोकव्रत : सप्तमी पर सात लोकों की पूजा; इससे महान् ज्ञान एवं अद्वितीय स्थिति की प्राप्ति होती है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ७९२, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से एक श्लोक ) ।
सप्तमीव्रत : ( बहुवचन में ) मत्स्यपुराण (अध्याय ७४ -८० ) ; पद्मपुराण (५।२१।२१५-३२१ ) ; भवि - ष्योत्तरपुराण (४३-५३); नारदपुराण ( १।११६११-७२ ) ; कृत्यकल्पतरु ( व्रत० १०३-२२५, कुल ४४ व्रत ) ; ( व्रत० १,६३२-८१०, ६२ व्रत ); वर्षक्रियाकौमुदी ( ३५-३८); तिथितत्त्व (३६ -४० ) ;
व्रतरत्नाकर
( २३१-२५५ ) । सप्तमी पूजा की प्रशंसा के लिए देखिए विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।१६९।१-७) ।
सप्तमीस्नापन : मत्स्यपुराण (६८।१-४२ ) ने विशद वर्णन किया है; हेमाद्रि ( व्रत० १, ७६३-७६८)। इसे रोगों, दुर्भाग्यों, क्लेशों एवं शिशु मृत्युओं को रोकने के लिए किया जाता है। यह नष्टसन्तान वाली नारी से उत्पन्न शिशु के सातवें मास में या शुक्ल ७ पर किया जाता है, किन्तु जन्मतिथि पर नहीं किया जाता ; चावल एवं दूध की आहुतियाँ सूर्य, रुद्र एवं माताओं को दी जाती हैं. सूर्य के लिए ऋ० रुद्र के लिए ऋ० ( ११४३ ) की ऋचाएँ सुनायी जाती हैं; अर्क एवं पलाश की
(१।५०) की ऋचाएँ तथा समिधाएँ, जौ, काल तिल
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