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धर्मशास्त्र का इतिहास
संकष्टहर - गणपतिव्रत : माघ कृष्ण ४ पर; तिथिव्रत; चन्द्रोदय पर देवता गणेश; व्रतरत्नाकर (१७६-१८८) ने विस्तृत उल्लेख किया है, जिसमें ऋ० ( १०१६३३, ४/५०१६), पुरुष सूक्त (ऋ० १०/९० ) के मन्त्र तथा नारदपुराण के एवं अन्य पौराणिक मन्त्र दिये गये हैं; १६ उपचार; २१ नामों के साथ गणेश की पूजा, उतनी ही संख्या में दूर्वा की शाखाएँ, उतनी ही संख्या में भृङ्गराज, बिल्व, बदरी, धत्तूर, शमी की पत्तियाँ एवं लाल फूल; गणपति के १०८ नामों से पूजों; अन्त में पूजक को ५ मोदक एवं दक्षिणा; ऐसा आया है कि व्यास ने यह व्रत युधिष्ठिर को बताया था; संकष्ट का अर्थ है कष्ट या विपत्ति, कष्ट' का अर्थ है 'क्लेश', 'सम्' उसके आधिक्य द्योतक है।
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संक्रान्तिव्रत : देखिए हेमाद्रि ( व्रत० ७२७-७४३, कुल १६ ) ; हेमाद्रि ( काल, ४०७-४३८ ) ; कृत्यरत्नाकर (६१३-६२१) ; कालनिर्णय ( ३३१-३४६ ) ; वर्षक्रियाकौमुदी ( २०४ - २३१); स्मृतिकौस्तुभ (५३१५४५ ) ; व्रतरत्नाकर ( ७२९-७३८ ) ; पुरुषार्थचिन्तामणि ( ३५७-३६६) ।
संक्रान्तिस्नान : देखिए गत अध्याय ११ : हेमाद्रि ( व्रत० २,७२८-७३०, देवीपुराण से उद्धरण) में जल में कुछ डालकर १२ संक्रान्तियों पर स्नान करने की विधि है ।
संघटक-व्रत : कार्तिक शुक्ल १ पर आरम्भ, उस दिन एकभक्त, द्वितीया एवं तृतीया पर उपवास; चतुर्थी पर पारण; तिथिव्रत; देवता शिव; यदि एक पक्ष में किया जाय तो ७३ मासों तक किन्तु यदि दोनों पक्षों में, तो ३३ मासों तक; एक पुरुष एवं एक स्त्री की दो स्वर्ण प्रतिमाओं का निर्माण तथा पंचामृत से स्नान; जागर; भूमि-शयन; आचार्य को प्रतिमा-दान; नारी का पति एवं पुत्र से वियोग नहीं होता; इस व्रत से पार्वती ने शिव को प्राप्त किया; हेमाद्रि ( व्रत० २, ३७० ३७५, वराहपुराण से उद्धरण) ।
सत्कुलावाप्तिव्रत : मार्गशीर्ष शुक्ल १ पर आरम्भ; तीन रंगों के पुष्पों एवं लेपों से विष्णु-पूजा; त्रिमधुरो, तीन दीपों का अर्पण; जौ एवं तिल का होम; तीन धातुओं ( सोना, रजत एवं ताम्र ) का दान ; विष्णुधर्मोत्तरपुराण ( ३।२०१।१-५) ।
सत्यनारायण व्रत : बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में अत्यन्त प्रचलित भविष्यपुराण ( प्रतिसर्गपर्व ), अध्याय २४-२९ में निरूपित; महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने इसे मुसलमानी प्रभाव से आक्रान्त माना है। आरम्भिक काल में (और बहुत से स्थानों में आज भी ) इसे 'सत्यपीर की पूजा' कहा जाता है; स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड (वंगवासी संस्करण) में उल्लिखित है । देखिए जे० बी० ओ० आर० एस० (जिल्द १६, पृ० ३२८) जहाँ उपर्युक्त लेखक ने कहा है कि 'सीन' की मुस्लिम विधि हिन्दुओं द्वारा सत्यनारायण की कथा में अपना ली गयी । यह व्रत आधुनिक मध्यम वर्ग के लोगों एवं नारियों में अत्यधिक प्रचलित है। इस व्रत की कथाओं के लिए देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी ( जिल्द ३, पृ० ८३-८५ ) । ऐसा आया है कि विष्णु ने नारद से इस व्रत का उल्लेख किया था। किसी भी दिन सत्यनारायण पूजा की जा सकती है; नैवेद्य सवा सेर या सवा मन, जिसमें केला, घृत, दूध, गेहूँ का आटा, गुड़ या शर्करा सम्मिलित रहते हैं; ये सभी मिला दिये जाते हैं; यजमान को कथा सुननी चाहिए और प्रसाद ग्रहण करना चाहिए; गीत, नृत्य एवं जागर; तब लोग अपने-अपने घर जाते हैं; इससे सभी कामनाओं की पूर्ति होती है; एक ब्राह्मण, एक लकड़हारे, साधु नामक वणिक् एवं उसकी पुत्री कलावती की कथाएँ; इन गाथाओं में सत्यनारायण प्रतिहिंसक एवं ईर्ष्यालु प्रकट किये गये हैं; ये कथाएँ स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से ली गयी कही गयी हैं ।
सदाव्रत : इसे 'अन्नदानमाहात्म्य' कहा गया है; हेमाद्रि ( व्रत० २, ४६९-४७५ ) में भविष्योत्तरपुराण का उद्धरण आया है कि कृष्ण ने युधिष्ठिर से दूसरों को अन्न (भोजन) देने की महत्ता बतायी है और कहा है कि राम
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