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वत-सूची
२१९ उन्हें दीर्घ जीवन देती हैं; इस पुराण में सूतिका-गृह में शिशु-जन्म के छठे दिन देवी-पूजा की कथा आयी है; सूतिका-षष्ठी के लिए देखिए कृत्यतत्त्व (४७१-४७५)।
षष्ठीव्रत : (१) पंचमी को उपवास; ६ या ७ को सूर्यपूजा; अश्वमेध-यज्ञ का लाभ; हेमाद्रि (व्रत० १, ६२७, ब्रह्मपुराण से उद्धरण); (२) शुक्ल ६ पर जब मंगल होता है; विभिन्न मासों में व्रत करना; अक्षय फल की प्राप्ति; हेमाद्रि (व्रत० १, ६२७-६२८, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)।
षष्ठीवत (बहुवचन में) : भविष्यपुराण (११३९-४६), भविष्योत्तरपुराण (अध्याय ३८-४२)
• ९८-१०३) : यहाँ केवल ३ व्रत हैं: हेमाद्रि (व्रत० १,५७७-६२९, यहाँ २१ व्रतों का उल्लेख है); हेमाद्रि (काल, ६२२-६२४); कालनिर्णय (१८९-१९२); तिथितत्त्व (३४-३५); समयमयूख (४२-४३); पुरुषार्थचिन्तामणि (१००-१०३); व्रतरत्नाकर (२२०-२३६)।
___ जब षष्ठी पंचमी या सप्तमी से युक्त हो तो सामान्य नियम यह है कि सप्तमी से युक्त षष्ठी पर व्रत एवं उपवास करना चाहिए, केवल स्कन्दषष्ठी में पंचमी से युक्त षष्ठी को वरीयता मिलती है; कालनिर्णय (१९०); निर्णयामृत (४८); समयमयूख (४२); पुरुषार्थचिन्तामणि (१००-१०१); षष्ठी कार्तिकेय (या स्कन्द) को प्रिय है, क्योंकि उस तिथि पर उनका जन्म हुआ था और उसी तिथि पर वे देवों के सेनापति बनाये गये थे; भविष्यपुराण (११३९।१-१३); हेमाद्रि (काल० ६२२, ब्रह्मपुराण से उद्धरण); कृत्यकल्पतरु (नयतकालिक, ३८२-३८३) ।
कुछ बातें विशेष रूप से द्रष्टव्य हैं। स्कन्द षठी के स्वामी हैं और प्रति षष्ठी पर सुगंधित पुष्पों, दीपों, वस्त्रों, काक के खिलौनों, घण्टी, दर्पण एवं चामर से उनकी पूजा होनी चाहिए; कार्तिकेय की पूजा विशेष रूप से राजाओं द्वारा चम्पा के फूलों से होनी चाहिए; कृत्यरत्नाकर (२७६); मार्गशीर्ष शुक्ल ६ को महाषष्ठी कहा जाता है; हेमाद्रि (काल, ६२३-६२४)। देखिए नारदपुराण (१।४५।१-५१) जहाँ वर्ष के बारह मासों में किये जाने वाले षष्टीव्रतों का उल्लेख है।
संवत्सरवत : चैत्र शुक्ल पर आरम्भ ; पाँच दिनों तक; अग्नि, सूर्य, सोम, प्रजापति एवं महेश्वर को एक युग के पाँच वर्षों के रूप में माना गया है, यथा--संवत्सर, परिवत्सर, इष्टापूर्त (इदावत्सर? ), अनुवत्सर एवं उद्वत्सर; उन्हें एक मण्डल में कम से नीले, श्वेत, लाल, श्वेत-पीत एवं काले पुष्पों से स्थापित करना चाहिए; तिल, चावल, जौ, घी, श्वेत सरसों से क्रम से होम करना चाहिए; पाँच दिनों तक नक्त; अन्त में ५ सुवर्णों का दान; यह पंचमूर्तिवत है; हेमाद्रि (व्रत० २, ४०९-४२०, विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण)। वैदिक साहित्य में एक युग के पाँच वर्षों को विभिन्न नाम दिये गये हैं; अथर्ववेद (६।५५।३); ते० सं० (५।७।२-३); तै० ब्रा० (१।४।१०।१)।
संवत्सरव्रत : (बहुवचन में) विष्णुधर्मोत्तरपुराण (११८२।८-२०, यहाँ ६० वर्षों के नाम आये हैं, यथा--प्रभव, विभव आदि); कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, ४३५-४५१); हेमाद्रि (व्रत० २, ८६२-८६७)।
संवत्सरारम्भविधि : हेमाद्रि (व्रत० १, ३६०-३६५) । देखिए ऊपर 'चैत्र प्रतिपदा।'
संकष्टचतुर्थी : श्रावण कृष्ण ४ पर चन्द्रोदय (अर्थात् सूर्यास्त के उपरान्त ८ घटिकाओं पर) के समय गणेश-प्रतिमा-पूजा, एक कलश-स्थापन ; १६ उपचार; मोदकों (१००८, १०८, २८ या ८) का निर्माण ; दिन भर उपवास या चन्द्रोदय होने तक भोजन न ग्रहण करना; जीवन भर या २१ वर्षों तक या एक वर्ष तक ; आचार्य को दान; २१ ब्राह्मणों को भोजन ; स्मृतिकौस्तुभ (१७१-१७७); व्रतरत्नाकर (१२०-१२७); वर्षकृत्यदीपक (६८); धर्मसिन्धु (७४); यह व्रत जीवन भर या २१ वर्षों तक किया जा सकता है। ऐसा कहा गया है कि तारकासुर को हराने के लिए इसे शिव ने भी किया था।
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